________________
धन्य - चरित्र / 325 वह भद्रा के समीप गया । भद्रा ने भी अत्यधिक आदर व सम्मानपूर्वक उसे योग्य - आसन पर बिठाया और आगमन का प्रयोजन पूछा । तब उस प्रधान - पुरुष ने कहा- " आपने जो रत्नकम्बल खरीदे हैं, उसमें से एक कम्बल राजा लागत मूल्य देकर आपसे खरीदना चाहते हैं। पटरानी के आग्रह को पूरा करने के लिए ही राजा को रत्नकम्बल की आवश्यकता है। अतः कृपा करके एक रत्न - कम्बल प्रदान कीजिए और उसका लागत मूल्य ग्रहण कर लीजिए।"
राजपुरुष के उपरोक्त कथन को सुनकर भद्रा ने कहा - "यह धन-धान्य भवन आदि सब राजा का ही है। अतः मूल्य से क्या प्रयोजन? मूल्य माँगना या लेना मेरे लिए अनुचित है। अगर और कोई होता, तो शायद मूल्य बताती । अगर मेरी कोई वस्तु महाराज के उपयोग में आये, तो मेरे लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है? यह तो मेरा महान भाग्योदय ही होगा। महाराज की आज्ञा के अनुकूल ही यदि सेवकों के द्वारा कार्य साधे जायें, तो सैकड़ों कार्य सफल होते हैं। ऐसे सैकड़ों कम्बल महाराज पर न्यौछावर किये जा सकते हैं। यदि सेवक के घर में रही हुई वस्तु स्वामी के लिए कार्यकारी होती है, तो उससे ज्यादा फल और कुछ भी नहीं है । वह दिवस भी धन्य है, जिस दिन हमारी कोई वस्तु स्वामी के चित्त को प्रसन्न करनेवाली होगी। पर क्या करूँ? मुझे पहले से ज्ञात नहीं था कि महाराज को इस कम्बल से प्रयोजन है । उनके दो-दो टुकड़े करके मैंने मेरी बत्तीस बहुओं को बाँट दिये। उन्होंने भी "इन कम्बल के टुकड़ों से क्या प्रयोजन?" ऐसा विचार करके अनादरपूर्वक स्नान से निवृत्त होते हुए अपने-अपने पाँव पोंछकर उन टुकड़ों को कूड़ेदान में डाल दिया । यद्यपि इन टुकड़ों को अग्नि में तपाया जाये, तो वे शुद्ध हो सकते हैं, पर फिर भी शुद्धत्व को प्राप्त, लेकिन पूर्व में भोगे हुए उन कम्बलों को महाराज को मैं कैसे भेंट कर सकती हूँ? बिना उपयोग की गयी वस्तु ही महाराज को उपहार में देना योग्य है, अन्यथा नहीं। अतः प्रणतिपूर्वक मेरा कहा हुआ सम्पूर्ण वृत्तान्त आप महाराज के सम्मुख निवेदन कर दें । अन्य कोई वस्तु आपके प्रयोजन के योग्य हो, तो आप ग्रहण करें, क्योंकि यह सब कुछ तो हमारे स्वामी श्रेणिक महाराज का ही है । "
इस प्रकार कहकर भव्य तांबूल (पान) - वस्त्रादि के द्वारा उसका उचित सम्मान करके शिष्टाचार के द्वारा आनन्दित करके उसे प्रेषित किया। उसने भी महाराज व अभयकुमार के पास जाकर सारा वृत्तान्त निवेदन किया । यह सब सुनकर महाराज श्रेणिक व अभयकुमार मन ही मन चमत्कृत हो गये । श्रेणिक मन में चिंतन करने लगा-"अहो ! पुण्य की गति कितनी अनिर्वचनीय है ! पुण्य - पुण्य में महान अन्तर है। मैं स्वामी हूँ और वह (शालिभद्र ) मेरा सेवक है, पर उसके व मेरे पुण्य में महान अन्तर है। वह मेरा सेवक होता हुआ भी एक दिन - मात्र में जो भोगने योग्य भोगता है, वह मैं वर्ष भर में भी भोगने में असमर्थ हूँ। मेरे लिए तो एक ही रत्नकम्बल ने मन में उथल-पुथल मचा रखी है, जबकि इसने तो सोलह ही रत्न कम्बल