Book Title: Dhanyakumar Charitra
Author(s): Jayanandvijay, Premlata Surana,
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 321
________________ धन्य-चरित्र/ 313 उसे खाये जाते हुए इस बालक के द्वारा स्पृहापूर्वक देखा गया। उसके आँगन में स्थित बालक के मुख से श्रेष्ठ स्वादु भोजन के निरीक्षण - मात्र से कुत्ते की तरह लार टपकने लगी । कुछ समय बाद सभी बालक अपने-अपने घर से भोजन करके निकलने के बाद परस्पर कहने लगे - " हे दोस्त! तुमने आज क्या खाया ?” उसने कहा - "खीर खायी । " अन्य किसी ने कहा- "आज अमुक पर्व है। अतः खीर ही खायी जाती है, अन्य भोजन नहीं ।" उसी समय किसी बालक ने वृद्धा के पुत्र ने पूछा - " तुमने क्या खाया ?” उसने कहा- "जो घर में बासी राब पड़ी थी, वह खायी ।" तब सभी बच्चे उसकी हँसी उड़ाते हुए कहने लगे - " आज तो खीर के बिना दूसरा भोजन नहीं होता है?" वृद्धा के पुत्र ने कहा- "मेरी माता ने मुझे जो दिया, वह मैंने खा लिया । " तब किसी ने कहा- "तुम माँ के पास जाओ और कहो कि मुझे खीर का भोजन दो, क्योंकि आज पर्व का दिन है ।" इस प्रकार बच्चों की बात सुनकर खीर को खाने इच्छावाला वह अपने घर पर जाकर माता को बोला - " हे पुत्रप्रिय ! घी व खाण्ड से युक्त खीर का भोजन दो ।" उसने कहा - " हे वत्स! तुझ निर्धन को खीर कैसे मिल सकती है?" बालक ने कहा- "हे माता ! जैसे-तैसे करो, पर मुझे खीर अवश्य खिलाओ।" इस प्रकार के पुत्र के वचनों को सुनकर वृद्धा विचारने लगी- "बालक शास्त्र में भी कहा है'बालको दुर्जन 'चौरो 'वैद्यो विप्रश्च पुत्रिका । "अर्था 'नृपो ऽतिथि" र्वेश्या न विदुः सदसद्दशाम् ।। 1. बालक, 2. दुर्जन, 3. चोर, 4 वैद्य, 5. ब्राह्मण, 6 पुत्री, 7. धन, 8. राजा, 9. अतिथि व 10. वेश्या अच्छी-बुरी दशा को नहीं जानते । पुत्र! अपने घर में जो भर पेट भोजन मिलता है, वही खीर है। निर्धनों को मन - वांछित कैसे मिल सकता है?" बालक ने कहा- "आज पर्व के दिन खीर के सिवाय अन्य भोजन नहीं खाया जाता है। अतः किसी भी प्रकार से मुझे खीर ही खिलाओ।” 1 वृद्धा विचार करने लगी- " अहो ! मेरे उत्कृष्ट पाप कर्मों का उदय है यह बालक तो कभी भी किसी भी वस्तु की माँग हठपूर्वक नहीं करता। जो मैं को सत्य-असत्य का ज्ञान नहीं होता है।

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