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धन्य-चरित्र/318 बहराते हुए देखकर उसकी अनुमोदना की-"अहो! इस बालक की कैसी दान-रुचि है! अत्यन्त दुष्कर रूप से लब्ध खीर को भी अखण्ड-धारा से दे रहा है। धन्य है यह बालक!"
इस प्रकार परस्पर अनुमोदना की, पर बालक की माता को नहीं बताया। वे धन्य की ये आठ लक्ष्मी के समान पत्नियाँ हुई हैं। पूर्वभव में वैभव की अधिकता के कारण सुभद्रा ने रोषवश अपनी प्रियसखी को "हे दासी! मिट्टी को वहन कर" इस प्रकार क्रोध किया, जिस कर्म के विपाक से शालिभद्र की बहन होते हुए भी मिट्टी वहन करने के दुःख को भोगना पड़ा, क्योंकि भोगे बिना कर्म का क्षय नहीं होता। अन्यों ने भी कहा है
इतैकनवते कल्पे शक्त्या मे पुरुषो हतः। तत्कर्मणो विपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः!।।
हे भिक्षुओं! आज से इक्यानवे (51) भव पूर्व मेरी शक्ति से एक पुरुष मारा गया था, उसी कर्म के विपाक से मेरे पाँव में कांटा चुभा है। (यह गौतम बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा था-ऐसा बौद्ध-ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है।)
इस प्रकार के गुरु-वचनों को सुनकर उत्पन्न हुए संवेगवाले कितने ही लोगों ने चारित्र ग्रहण किया, तो कितने ही लोगों ने गृहस्थ धर्म स्वीकार किया। कितने ही लोगों ने सम्यक्त्व ग्रहण किया। अन्यों ने रात्रि भोजन का त्याग किया। इस प्रकार मुनि की देशना अति फलवती हुई, क्योंकि दृढ़ मिथ्यात्वियों के आगे तो धर्म-देशना करना प्रलाप–मात्र है। कहा भी है
__ अतीताऽर्थे कथिते विलापः, असंप्रहारे कथिते विलाप। व्याक्षिप्तचित्ते कथिते विलापो, बहुकुशिष्ये कथिते विलापः ।।
जो बीत गया, उसे कहना विलाप है, योग्य-अयोग्य की विवक्षा के बिना कहना विलाप है। व्याक्षिप्त चित्तवालों के आगे कहना विलाप है, अत्यधिक कुशिष्यों के आगे कहना भी विलाप–मात्र ही है।
अतः उन्हे उपदेश नहीं देना चाहिए। निपुण श्रोताओं का संयोग होने पर श्रोता और वक्ता-दोनों का ही चित्त समुल्लसित होता है। धनसार ने भी देशना सुनकर, कर्म-विपाक को जानकर, भव-निर्वेद को प्राप्त करते हुए उठकर आचार्य भगवन को नमन करते हुए विनति की-“हे गुणनिधि! संसार–भ्रमण के भय से अत्यधिक उद्विग्न बना हुआ मैं आपकी शरण में आया हूँ। अतः मुझ पर कृपा करके चारित्र रूपी यान प्रदान करें। जिससे उस पर आरूढ़ होकर भव के उस पार जा पाऊँ। आपका अत्यधिक नाम होवे।''
मुनि ने कहा-“हे देवानुप्रिय! तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो। पर शुभ