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धन्य - चरित्र / 308 किया गया। अशुचि की खान मातंग की सेवा व उपासना के द्वारा भी उसकी दरिद्रता खत्म नहीं हुई । यहाँ और परलोक में भी दुःखी ही हुआ ।
दूसरे श्रीदेव के द्वारा त्रिविध प्रत्यय से पूजित - अर्चित लक्ष्मी भी उसे छोड़कर चली गयी। वह भी लक्ष्मी के द्वारा छला गया ।
तीसरा संचयशील था, जिसके द्वारा अत्यधिक संरक्षण में व्यग्रता होने से कठिन प्रयत्नों द्वारा रक्षित भी लक्ष्मी विमुख व रुष्ट हुई और दुर्गति का कारण बनी ।
चौथा भोगदेव दान देता था, परोपकार करता था, यथा-इच्छा भोग करता था, पर उस पर भी लक्ष्मी प्रसन्न नहीं हुई, प्रत्युत उसके सेवन के द्वारा श्रांत व उदासीन होने लगी ।
इसलिए लक्ष्मी स्वभाव से किसी से भी बंधकर नहीं रह सकती । केवल पूर्वकृत पुण्य-बंध जब तक है, तभी तक रहती है, उसके आगे नहीं । जिन्होंने जिनागम-तत्त्व को नहीं श्रवण किया है, वे सभी संसारी जीव लक्ष्मी के आग्रह के संकट में गिरे हुए हैं। जिस प्रकार ये तीनों ही सुचिवोद आदि जीव संसार के आवर्त्त में गिरे तथा ससार के दुःख- समुद्र में गिरते-पड़ते घूम रहे हैं। सभी संसारी जीव प्रतिक्षण लक्ष्मी के लिए ही दौड़ रहे हैं। 'अज्ज कल्लं परं परारिं'–आज, कल अथवा उससे आगे - इस प्रकार आशा रूपी कर्म से परिकर्मित लक्ष्मी के आग्रह को नहीं छोड़ते हैं। लक्ष्मी कृतपुण्य पुरुष के अलावा किसी का भी साथ नहीं करती। जैसे कि वेश्या धनी के बिना अन्य किसी के साथ की इच्छा नहीं करती।
इन चारों के बीच भोगदेव ही प्रशंसा का श्रेष्ठ पात्र है, जिसने यथेच्छापूर्वक त्याग, भोग, विलास आदि के द्वारा लक्ष्मी का फल पाकर पुण्यबल के विद्यमान रहते हुए भी तृण की तरह उसका त्याग भी कर दिया। जिसके द्वारा सभी जीव छले जाते हैं, उसे जिस पुरुष के द्वारा छला गया, वह पुरुष वास्तव में प्रशंसा करने के लिए श्रेष्ठतम है ।
अतः हे केरलकुमार ! जो विद्यमान भी धन को हानि के भय से न तो भोगता है, न देता है, न उचित स्थान में व्यय करता है, न उपकार के लिए, न ख्याति के लिए कुछ करता है, वह संचयशील के समान ही होता है । भव-भव में दरिद्रता के दुःख से दुखित होता हुआ परिभ्रमण करता है । इस लोक में संचयशील के समान जो पुरुष दान - भोगादि से पराङ्मुख हैं, वे हाथी के कानों की तरह चपला लक्ष्मी के द्वारा छले जाते हुए चतुर्गति के भ्रमण में पड़ते हुए दुःखों की परम्परा का ही अनुभव करते हैं। जो सत्पुरुष लक्ष्मी - प्राप्ति के अनुरूप