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धन्य - चरित्र /299 आदि को एक ही बार में वहोराकर धन्य हैं, आपका चारित्र धन्य है। आज मुझ गरीब पर बड़ी कृपा की। मुझे संसार रूप कूप से आपने तार लिया, क्योंकि मुनि के दर्शन से कोटि भवों के किए हुए पाप नष्ट होते हैं। पुनः कृपा करना।”
इस प्रकार स्तुति करके और नमन करके पूर्ण मनोरथवाला हुआ । साधु भी धर्मलाभ देकर वापस लौट गये । दुर्गतपताका भी मुनि - दान की पुनः-पुनः अनुमोदना करते हुए घर आ गया। घर के कार्यों को करते हुए, पुलकित हृदय से मुनि-दान का स्मरण करते हुए, आश्चर्यचकित की तरह उत्साहित होते हुए, चिन्तित कार्य की सिद्धि होते हुए सोचने लगा- "अहो ! मेरे भाग्य के योग से अचिन्तित और असम्भव कार्य भी कैसे हो गया? ये निःस्पृह मुनि अनेक महेभ्यों के द्वारा भिक्षा के लिए विनति किये जाने पर भी किसी के घर जाते है, किसी के घर नहीं जाते। जाते हैं, तो कुछ भी ग्रहण नहीं करते। किसी भाग्यवान के घर ही ग्रहण करते हैं। किसी के सामने तक नहीं देखते। ऐसे महेभ्यों की तुलना में मुझ रंक के निमंत्रण - मात्र से मेरे वचनों को अवधारित किया । प्रसन्नतापूर्वक मेरे द्वारा दिया गया ग्रहण किया । अहो ! मेरे भाग्य का उदय हुआ। आज से मेरी दुर्गति का नाश हुआ ।”
इत्यादि पुनः - पुनः अनुमोदना करते हुए पुण्य की पुष्टता की। उसके बाद धनसुन्दरी के पीहर पक्ष के सम्बन्धियों के घर में विवाह उत्सव होने के कारण भोजन का निमंत्रण देने के लिए आये । श्वसुर पक्ष के भी घर में विवाह होने से भोजन का निमंत्रण आया। तब श्रेष्ठी आदि प्रमुख मनुष्य अपने ही कुटुम्ब के विवाहोत्सव में जाने के लिए उद्यत हुए । तब धनसुन्दरी ने कहा - " मैं तो पीहर–पक्षीय सम्बन्धियों के घर जाऊँगी। पर उनका दूसरा घर अत्यधिक दूर है, अतः दुर्गतपताका को लेकर जाऊँगी।"
यह सुनकर सेठ ने भी आज्ञा दे दी। तब सेठानी दुर्गतपताका के साथ अपने पीहर गयी। तब उसके सम्बन्धियों ने "बहुत दिनों से आयी हो" यह कहकर भोजन के लिए उसे बैठाया। फिर उसके सम्बन्धियों ने कहा - " बहन ! तुम्हारे साथ आये हुए इस मनुष्य को आज्ञा दो, जिससे यह तुम्हारी आज्ञा पाकर भोजन ग्रहण करे । अन्यथा तो यह ग्रहण नहीं करेगा। मेरे घर में तो कुछ कमी नहीं है। हजारों लोग खा रहे हैं, दिन भी बहुत चढ़ गया है, यह बहुत दूर से तुम्हारे साथ आया है। उसे भोजन किये बिना नहीं जाने दूँगा ।
तब धनसुन्दरी ने विचार - " मेरे साथ आये हुए इसका क्या प्रयोजन, अगर यह भूखा ही मेरे साथ वापस जायेगा?”
यह विचार करके आज्ञा दी कि तुम सुखपूर्वक जैसी इच्छा हो, वैसा