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धन्य-चरित्र/303 तब दूसरी ने कहा-"मैं भोगदेव सार्थवाह की घर-लक्ष्मी हूँ।" पहली ने कहा-"तुम्हारे कुशल और सुख तो है?"
दूसरी ने कहा-"बहन! नये - नये भोग - विलास के कार्यों में आसक्त भोगदेव के द्वारा व्यवहृत, स्वामी के कार्य की आज्ञाधारिका, मुझ कर्मकारी के कुशल व सुख कैसे हो सकता है? प्रतिक्षण उसकी दासी की तरह इच्छित पूर्ति करते हुए दिन-रात बीतते चले जाते हैं। घड़ी मात्र भी आराम नहीं है। पर तुम कौन हो?"
पहली ने कहा-"मैं संचयशील सार्थवाह की घर-लक्ष्मी हूँ।" भोगदेव की लक्ष्मी ने कहा-"तुम तो सुखपूर्वक संवास करती हो ना?"
उसने कहा-'भगिनी! नरक जैसे अंधकारवाले कूप की तरह महाअंधकार रूपी गर्त में छिपायी हुई, चन्द्र व सूर्य की किरणों को भी नहीं देखती हुई बन्दिनी की तरह अंधकार की बहुलतावाले कारागार में डाली हुई मुझे कहाँ सुख है? निरन्तर रोके हुए रखने के दुःख से दु:खत होते हुए मैं दुःखपूर्वक ही वहाँ निवास करती हूँ। तुम तो थोड़ी ही दुःखी हो, पर मुझसे तो तुम सुखी ही हो, क्योंकि तुम्हारे स्वामी के द्वारा उत्साह से किये हुए दान, भोग, विलास आदि में किये गये लक्ष्मी के व्यय को देखकर लोग कहते हैं-धन्य है यह श्रेष्ठी! धन्य है यह लक्ष्मी! जो अनेक जीवों का दुःख से उद्धार करती है और आँखों को सुकून देती है। इस लक्ष्मी ने श्रेष्ठ स्थान को ग्रहण किया है। इस प्रकार सभी लोगों के द्वारा तुम्हारी प्रशंसा ही की जाती है। मेरे स्वामी की तो त्याग व भोग से रहित प्रवृत्ति देखकर तो लोग कहते हैं-धिक्कार है इस श्रेष्ठी को! धिक्कार है इसकी लक्ष्मी को! यह लक्ष्मी मलिन है, जो किसी के भी काम नहीं आती है, यह लक्ष्मी दुष्टा और निष्फला है। इसके होने से तो न होना ही अच्छा है। इसके तो नाम ग्रहण करने पर भी कुछ दोष ही होता है। इत्यादि जले पर नमक छिड़कने के समान सुनने में समर्थ नहीं हूँ। तुम्हे तो ऐसा कोई दुःख नहीं है। कानों को भी सुख मिलता है।''
इस प्रकार उन दोनों की परस्पर वार्ता सुनकर भोगदेव विचारने लगा-“अहो! ये दोनों ही दुःखी हैं। इनका चपला नाम सार्थक ही है, क्योंकि इनको स्थित रखने के लिए जगत में कोई उपाय नहीं है। यह लक्ष्मी न तो शौच से साध्य है, न भक्ति से साध्य है। शौच करते हुए भी नष्ट होती है और भक्ति करते हुए भी चली जाती है। यत्न से संचित करने पर भी स्थिरता को प्राप्त नहीं होती है। अर्थात् पुण्य के अधीन ही लक्ष्मी है-यह हार्द है। इसलिए जब तक पुण्य क्षीण हो, उससे पहले ही इसका त्याग करना उचित है।"