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धन्य - चरित्र / 304
इस प्रकार विचार करके प्रभात में सकल सामग्री करके भोगवती के साथ रथ पर आरूढ़ होकर दास-सेवकों आदि से परिवृत्त होकर अपने नगर की ओर चला। कुछ ही दिनों में अपने घर पहुँच गया। अगले दिन भोगवती को कहा - "हे सुभगे ! मनुष्य भव को प्राप्त करके पूर्व पुण्य के उदय से अपरिमित धन प्राप्त किया। उसमें भी यथा - इच्छित खाया, पीया, भोगा, दान दिया, विलास में धन का व्यय किया । कोई भी इच्छा अपूर्ण नहीं रही। सांसारिक वैभव में कुछ भी कमी नहीं है । अतः जब तक पुण्य क्षीण न हो, उससे पहले ही इस लक्ष्मी का त्याग करके चारित्र ग्रहण कर लेते हैं, जिससे इस संसार रूपी आवर्त्त में चक्कर न लगाना पड़े। पुण्य के क्षीण होने पर तो सैकड़ों यत्नों से रक्षित लक्ष्मी भी नष्ट हो जाती है । अतः जब तक यह नहीं जाती है, उससे पहले ही इसका त्याग कर दिया जाये, तो ही श्रेष्ठ है ।"
इस प्रकार पति के वचनों को सुनकर भोगवती ने कहा - "स्वामी! आपने जो कहा, वह सत्य है। अभी संयम ग्रहण का अवसर भी है। लोक में प्रशंसा के आस्पद बनेंगे। उम्र के अनुकूल उचित कार्य करने से ही उभय लोक की सिद्धि होती है। अतः आपने जो सोचा है, वह सफल होवे । मैं भी आपकी अनुगामिनी होकर चारित्र ग्रहण करूँगी। पति के बिना घर में रहना कुलवती के लिए प्रेतवन में रहने के समान है। अतः शीघ्रता से इच्छित को पूर्ण करें। "
इस प्रकार के प्रिया के वचनों को सुनकर दुगुने हुए वैराग्य से सम्पूर्ण नगर के जिनमंदिरों में द्रव्यादि को देकर अष्टाह्निका महोत्सव शुरू करवाया । भम्भा, भेरी आदि वादित्रों की ध्वनि व गीत आदि की ध्वनियों से दिशाएँ गूंज उठीं। सकल नगर में अमारि का पटह बजवाया गया । सप्त क्षेत्र में अपरिमित धन व्यय किया। अनेक दीन-दुखियों को पुष्कल धन का दान देकर उनका दारिद्र्य दूर कर दिया । स्वजन - कुटुम्ब आदि को यथेच्छित देकर संतुष्ट किया उसके बाद स्वजन, मित्र, ज्ञातिवर्ग को आमंत्रित करके भव्य भोजन, ताम्बूल, वस्त्र, भूषण आदि से संतुष्ट करके उनके समक्ष कुटुम्ब का भार ज्येष्ठ पुत्र को देकर सभी के सामने कहा- "मेरे स्थान पर मैं अपने इस पुत्र को आपके समक्ष स्थापित करता हूँ। आज के बाद आप लोग भी इसे मेरे ही समान समझें। इसका महत्त्व तो आपके हाथ में ही है। कभी गलती हो जाये, तो एकान्त में शिक्षा देकर इसकी रक्षा करना ।"
इस प्रकार स्वजन आदि को कहकर पुत्र को कहा - " वत्स ! ये सभी आत्मीय हितचिंतक और आत्मीय पक्ष के पोषक है। अतः सदैव इनके अनुकूल ही प्रवर्तित होना, प्रतिकूलता मत करना । सदा, दान, पुण्य, परोपकार आदि से