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धन्य - चरित्र / 284
पाटक में रहते थे। उन दोनों के पिता की परम्परा से आयी हुई महालक्ष्मी सुखपूर्वक गृहवास का पालन करती थी। उन दोनों के मध्य में जो सुचिवोद था, उसकी शौचधर्म में रति थी। प्रतिदिन ताम्बे के पात्र में पानी लेकर हाथ से छांटता था, फिर वहाँ बैठता था । गृहकार्य के लिए जो भी वस्तु लाता था, वह पहले जल छांटकर शुद्ध करता था, फिर उसे घर में लाता था ।
एक बार उसके घर में चाण्डाल आये। उसकी गृहिणी लक्ष्मीवती ने पूछा - "किसलिए आये हो?"
उन्होंने कहा- -" पूर्व में सुचिवोद के पिता के द्वारा हमें ब्याज में दीनारें दी थीं। बहुत समय बीत जाने के बाद हमारी दीनार - सम्पत्ति हो गयी है। अतः उसके ऋण को छुड़ाने के लिए ब्याज सहित दीनारों का लेख करवाकर सभी देय दीनारों को लेकर आये हैं । अतः सुचिवोद कहाँ गये हैं?"
लक्ष्मीवती ने कहा - " अभी तो मध्याह्न काल है, घर के ऊपरी हिस्से में
सुख - निद्रा में सोये हुए है। मैं उन्हें उठाती हूँ ।"
मातंगों ने कहा- "निद्रा - छेद करना महा पाप है, क्योंकि निद्राछेदी पंक्ति-भेदी होता है। अतः इन दीनारों को आप ही ग्रहण कर लेवें । जागने पर उन्हें दे देना और सब कुछ कह देना ।"
इस प्रकार कहकर एक भाजन में दीनारें देकर वे चाण्डाल चले गये । तब तक सुचिवोद भी नींद से उठकर नीचे आ गया। लक्ष्मीवती ने मातंगों की पूरी बात उसे बतायी। सुचिवोद ने कहा - " वे दीनारें कहाँ रखी हैं।" उसने कहा-“भाजन में रखी है।"
सुचिवोद ने दीनारों को देखकर पूछा - " लक्ष्मीवती ! जलयोग किया या
नहीं?"
उसने कहा- "लक्ष्मी-सरस्वती का संयोग होने पर दीनारें होती है, तो उसमें जलयोग करने का क्या प्रयोजन?"
यह सुनकर भृकुटि चढ़ाकर रौद्र होकर क्रोध से बोला- "इन दीनारों का नाश हो । किसी खड्डे में अथवा तो पर्वत की कन्दरा में जा पड़े। तेरे घर में पवित्रता नहीं है। मेरे पवित्र घर को तुमने मलिन कर दिया है ।"
यह कहकर वाम पैर से उन दीनारों को ठोकर मारी। तब लक्ष्मी ने चिंतन किया- "यह पाप के उदय से अयोग्य है, जो घर में आयी हुई मुझको वाम पैर से स्खलित करता है । अतः मुझे इसके घर का त्याग कर देना चाहिए। मुझे ऐसा करना चाहिए, जिससे कि इसके उदर तक की पूर्ति न हो पाये। इस घर को दरिद्रता से पूर्ण करना चाहिए ।"