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धन्य-चरित्र/286 कर, अति-सुगन्धित द्रव्य से मिश्रित ताम्बूल देकर मातंग को प्रसन्न किया। इस प्रकार सुर-रमणियों के द्वारा गीत-नृत्य आदि अनेक विलासों से विलसित होते हुए वह मातंग अद्भुत सुख में लीन हो गया। जब रात्रि की एक घड़ी बीती, तब सभी कार्य सम्पन्न हो जाने से उन्हें भेज दिया। पुन: पहले की तरह देवकुल में स्थित रहा।
यह सभी सुचिवोद ने देखा। देखकर विचार करने लगा-"अहो! यह मातंग विद्या रूपी रत्नों का सागर है और अचिन्त्य शक्तिवाला है। अब इसकी ही सेवा करता हूँ। सेवा से प्रसन्न होकर मेरे दारिद्र्य को मूल से ही उखाड़ देगा।"
इस प्रकार विचार करके सेवा करने में प्रवृत्त हुआ। पीछे-पीछे घूमने लगा। बैठने की इच्छा होने से पहले ही आसन देता है, उसके आगे सावधान मनवाला होकर रहता है, मुख से वचन के निकलने मात्र से उस कार्य को निपुणता से कर देता है। इस प्रकार जिससे उसके चित्त को प्रसन्नता हो, वैसा ही करने लगा। उठने की इच्छा होने–मात्र से ही पादुकाएँ लाकर उसके पाँवों में पहनाता है, मार्ग में गमन करते हुए विनयपूर्वक सेवक की तरह पीछे-पीछे सेवा करते हुए चलता है। उसके उपकरण-भार को उठाते हुए पग-पग पर खमा-खमा शब्दों को बोलते हुए चलता है। इस प्रकार चिरकाल तक सेवा करते हुए उसने मातंग का मन जीत लिया।
तब एक दिन चाण्डाल ने सुचिवोद से कहा-“हे भद्र! किस कारण से मेरी अनिर्वचनीय सेवा करते हो? मैं तुम्हारी सेवा से प्रसन्न हूँ, अतः अपने मन की इच्छा कहो, जिससे मैं तुम्हारी इच्छा पूरी कर सकूँ।"
__तब सुचिवोद ने प्रणामपूर्वक दोनों हाथों को जोड़कर कहा-"स्वामी ! मैं गरीबी से पीड़ित हूँ। अति-दारिद्र्य से पराभूत होकर घर से निकला। पर गरीबी तो मेरे पीछे पड़ गयी है। किसी भी प्रकार से मेरा साथ नहीं छोड़ती। कहा भी
रे दारिद्द वियक्खण! वत्तां एक सुणिज्य। अम्हे देसांतर चालस्युं तुं घरसार करिज्ज।। पडिवन्न गिरुयाँ तणुं निरवहे नेट निवाणं।
तुम देशान्तर चालतें अमे पिण आगै ठाण।।
दरिद्री व्यक्ति गरीबी से कहता है- हे विचक्षण गरीबी! एक बात सुन। मैं देशान्तर जाता हूँ। तूं घर की सार-सम्भाल करना।
उसकी वाणी सुनकर गरीबी ने कहा-मेरा यहाँ निर्वाह नहीं होगा। तुम