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धन्य - चरित्र / 295 के समय को पालने के लिए अनेकों क्रयाणक, घृत, गुड़ आदि का अति-व्यय होगा । उससे भी पुत्र का पालन करने में और अधिक खर्च होगा । पुत्र ने तो मेरे धन के खर्च का द्वार खोल दिया |”
यह सुनकर चतुष्पथ पर रहे हुए सभी लोग हँसने लगे। दासी ने तो उदास मुख से निराश होकर घर पर आकर सारी घटना धनसुन्दरी के आगे निवेदन की। संध्या के समय श्रेष्ठी घर आया, तब घर के सभी सदस्यों ने सार्थवाह से कहा—“स्वामी! आपने क्या किया? आप अपुत्र को पुत्र की प्राप्ति हुई है । आपने कुछ भी बधाई नहीं दी । चतुष्पथ में रहकर भी आपको थोड़ी भी लज्जा नहीं आयी?"
यह सुनकर पुनः वहाँ भी पूर्ववत् उत्तर देकर श्रेष्ठी बाहर निकल गया । कौड़ी - मात्र भी व्यय नहीं किया ।
एक बार शुचिकर्म से निवृत्त होने पर धनसुन्दरी और कुलवृद्धा ने परस्पर मंत्रणा की - "श्रेष्ठी तो ऐसे अवसर पर भी कुछ खर्च नहीं करता, शिला के समान कर्कश हृदय करके निर्लज्ज की तरह बैठ गया है। हमारे द्वारा अपने गोत्र के चाँद को ज्ञातिजनों व गोत्रीयजनों को भोजन कराये बिना कैसे दिखाया जा सकता है? गया हुआ समय फिर लौटकर नहीं आता ।"
इस प्रकार विचार करके धनसुन्दरी ने सार्थवाह से कहा - "प्रियतम ! हम जैसे अपुत्रों के महा-भाग्योदय से पुत्र आया है। पर भोग व दान में भीरू आप तो ऐसे अवसर पर भी कुछ नहीं करते हैं। इस प्रकार की कृपणता करके भारभूत इस लक्ष्मी के द्वारा आप क्या करना चाहते हैं? आयुष्य पूर्ण होने पर सब कुछ यहीं रह जायेगा। साथ में तो केवल द्रव्य से उपार्जित पाप ही आयेगा । अवसर पर द्रव्य खर्च न किये जाने पर ज्ञातिजनों तथा बन्धुजनों के मध्य रहना कैसे शक्य है? अगर आप कुछ नहीं करेंगे, तो मैं आभूषण आदि बेचकर इस प्राप्त अवसर पर खर्च करूँगी।"
इस प्रकार धनसुन्दरी के साथ घर में रहे हुए समस्त मनुजों ने भी उपालम्भ दिया। सभी के उपालम्भों को सुनकर सेठ व्याकुल हो गया। महा- दुःख में पड़कर सोचने लगा- " अहो ! जैसी गृहिणी है, वैसे ही सभी पारिवारिक सदस्य हो गये हैं। ये क्या जानते हैं? द्रव्य क्या आकाश से आकर गिरता है? क्या घास की तरह उगता है? अथवा तो क्या भूमि से निकलता है? धन तो महा- - क्लेश से प्राप्त होता है । ये लोग तो द्रव्योपार्जन के दुःख को कुछ भी नहीं जानते । हाँ! ये तो ग्रह से गृहित इतने सारे द्रव्य के व्यय को निरर्थक ही करायेंगे। एक मत होकर सभी ऐसा करने के लिए प्रवृत्त हुए हैं । अब मैं क्या कर सकता हूँ ।