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धन्य-चरित्र/296 मेरी कौन सहायता करे? जिसके भी आगे कहता हूँ, वह तो इनका ही पक्ष लेता है। सभी भोजन के लोभी हैं। दूसरे के धन को खर्च करवाने में कौन रसिक नहीं होता? इतना द्रव्य पुनः कैसे मिलेगा? हा! यह क्या हुआ?"
इस प्रकार महा-आर्त्तध्यान से पराभूत होकर दिवस तो जैसे-तैसे व्यतीत किया संध्या में भोजन करके रात्रि में सो गया। पर चिंता के कारण नींद नहीं आयी, उससे भोजन का अजीर्ण हो गया। विसूचिका हुई। उस महा-वेदना के कारण वह मर गया। मरकर उसी नगर में आजन्म दरिद्र नागिल नामक व्यक्ति की नागिला नाम की भार्या की कुक्षि में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। पर जन्म से ही पिता की अनिष्टता देखकर खेद को प्राप्त होता था, हर्ष को नहीं। इस प्रकार वहाँ रहते हुए वह अत्यन्त दुःख से काल व्यतीत करता था।
उधर धनसुन्दरी पति के मरण को देखकर परम उद्वेग को प्राप्त होकर चिंतन करने लगी। "धिक्कार है इस धन के लोभ को, व्यय की बात को सुनने मात्र से ही इनका मरण हो गया। उनकी गति कैसे हुई है, यह तो ज्ञानी ही जाने। लोभ सर्व-विनाशक है-यह जिनागम में कहा हुआ सत्य ही है।"
फिर उसके अग्नि-संस्कार आदि मरण-कार्य को करके बाद में कुल व धर्म की रीति से उसके पीछे के दान आदि कार्य के करके शुभ दिन स्वजनों को संतुष्ट करके स्वजनों व कुटुम्ब की साक्षी से पुत्र का धनदत्त रूप में नामकरण किया। कुल का आधारभूत वह बालक अनेक यत्नों से पाले जाते हुए सात-आठ वर्ष का हो गया। अब वह बालक घर के अन्दर ही घूमते हुए परिजनों के अनेक वस्त्राभूषण, मंदिर की श्रेणी आदि तथा शयनादि स्थान को देखते हुए विचार करने लगा-“ये सभी वस्तुएँ मैंने पहले भी कभी देखी और अनुभूत की है।"
इस प्रकार ऊहा-अपोह आदि करते हुए ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उससे पूर्व अनुभूत सब कुछ प्रत्यक्ष रीति से ज्ञात हुआ। तब पूर्वभव के पुण्य से विलसित को स्मरण करके अपनी मति से एक दोहा बनाकर उत्साह से बोलने लगा। जैसे
दाणं जो दिन्नं मुनिवरह चडिआ तं पत्तइ तो मि।
रंकस्स वि सह संपडिय जं धण तेरहकोडि।।
मुनिवर को जो दान दिया, उससे चढ़ते परिणामों से उच्चता को प्राप्त किया और जिसके पास तेरह करोड़ का धन था, वह गरीबी के यहाँ जा गिरा।
इस प्रकार जहाँ-तहाँ भुजाओं को ऊपर करके प्रलाप करने लगा। इस प्रकार घूमते हुए पास में रहे हुए भोगदेव सार्थवाह के घर गया। वहाँ भी उच्च