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धन्य-चरित्र/293 के कान की तरह चपल लक्ष्मी है। उसका विश्वास नहीं करना चाहिए, जो भोगा और जो परोपकार के काम में आ गया, वही अपना है-ऐसा जानना। अन्य सब तो परकीय व पाप का हेतु है, क्योंकि भवान्तर में भी इससे जन्य पाप अविरति का कारण होने से पाप का विभाग साथ में आता है। अतः अस्खलित दान देना चाहिए। इच्छा के अनुरूप भोग भी करना चाहिए।"
इस प्रकार भोगवती स्वयं तो दान-रसिक थी, पति के द्वारा प्रेरणा किये जाने पर उस दिन से विशेष रूप से सुपात्रदान आदि में उत्साहपूर्वक संलग्न हो गयी। जो कोई भी जो-जो माँगता था, वह-वह उसको देती थी। किसी को भी ना नहीं बोलती थी। इस प्रकार कितना ही समय व्यतीत हो गया।
एक बार उस नगर के उद्यान में लोकालोक के पदार्थों को प्रकाशन करने में सूर्य के समान ही केवलि भगवान पधारें। उन्हें वन्दन करने के लिए विशाल पर्षदा गयी। भोगदेव भी यह सुनकर हर्ष-सहित भोगवती के साथ वंदन करने के लिए आया। केवली भगवान को देखते ही पाँच अभिगमपूर्वक वंदन करके तथा स्तुति करके यथोचित स्थान पर बैठ गया। तब भगवान ने संसार से निर्वेद प्राप्त करानेवाली धर्मकथा कही। अवसर देखकर भोगदेव ने विनति की-"भगवन! दान का क्या फल है?"
___ केवली ने कहा-“हे देवानुप्रिय! इस विषय में विशालपुर में संचयशील सार्थवाह के दुर्गतपताका नामक कर्मकर से पूछना चाहिए।"
भोगदेव ने "तहत्ति" कहकर उनके वचनों को स्वीकार कर लिया। समय पर देशना पूर्ण होने पर परिषदा जैसे आयी थी, वैसे ही चली गयी। केवली भगवान कुछ दिन वहाँ रुककर फिर विहार कर गये। तब भोगदेव केवली के वचनों के सत्यापन के लिए भोगवती को साथ लेकर स्थादि वाहन पर आरूढ़ होकर अनेक सेवकों से परिवृत्त होकर विशालपुर में गया। नगर में प्रवेश करते ही दैव के योग से दुर्गतपताका की दुर्गिला नामक गृहिणी किसी कार्य के लिए मार्ग में जाती हुई मिली। उसे बुलाकर भोगदेव ने पूछा-“हे भद्रे! तुम संचयशील सार्थवाह का घर जानती हो?"
उसने कहा-"मेरे पीछे-पीछे आइए! उनका घर बताती हूँ।"
चलते हुए उसने सार्थवाह का घर बता दिया। उस घर के द्वार की वेदिका पर संचयशील सार्थवाह की पत्नी धनसुन्दरी खड़ी थी। उसे देखकर भोगदेव ने कहा-“हे भद्रे! क्या यह संचयशील का घर है?"
उसने कहा-"हाँ! यही है।" भोगदेव ने पूछा-"श्रेष्ठी घर में है?"