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धन्य-चरित्र/285 यह विचार कर लक्ष्मी ने सुचिवोद के घर को छोड़ दिया। अचानक थोड़े से दिनों में ही सारा धन चला गया। घर पर कुछ नहीं रहा। आजीविका के लिए जो-जो भी व्यापार करता, वह सब विपरीत हो जाता। धन के जाने पर जिसकी सेवा आदि करता था, उसकी कुछ भी अशुद्धि होती, अमंगल होता, तो उसे घर से निकाल देता। इस प्रकार स्वजन वर्ग व शेष लोगों का अनिष्टतर हुआ। प्रतिदिन के निर्वाह के योग्य अन्न भी घर पर न रहा। भूख से पतले हुए पेटवाला इधर-उधर घूमता था। अन्न-मात्र भी दुर्लभ होने के कारण लक्ष्मीवती तो पीहर चली गयी। वह भी दुःख परम्परा की अग्नि से जलते हुए मनवाला कुछ भी निर्वाह करने में असमर्थ होते हुए देशान्तर को चला गया। एक गाँव से दूसरे गाँव जाता, जहाँ-जहाँ भी व्यवसाय करना शुरू करता, वहाँ-वहाँ विपरीत होने से प्रबल दुःख को प्राप्त करता। किसी की भी सेवा आदि करने की कोशिश करता, तो चोरी का कलंक लग जाता था। अतः उसे निकाल दिया जाता था। इस प्रकार अनेक ग्राम, देश आदि में बहुत समय तक भ्रमण किया, पर सभी जगह प्रयास विफल होने से भग्नाशावाला वह पुनः अपने देश की तरफ चला।
एक बार बिना खाये हुए कष्टपूर्वक मार्ग का अतिक्रमण करते हुए क्षुधा से पीड़ित एक नगर के समीप देवकुल में क्षुधा से आकुल मार्ग के श्रम से क्लान्त ग्लान शरीरवाला खेदित होता हुआ बैठा था। तब एक मातंग वहाँ आया। वह मूल मण्डप में जाकर यक्ष को प्रणाम करके मण्डप में बैठ गया। सुचिवोद भी भूख-प्यास से क्लान्त शरीरवाला देवालय के एक कोने से पड़ा हुआ मातंग के क्रिया-कलाप को देख रहा था। तब मातंग ने प्रणाम करके आडम्बर-युक्त पूजा-विधान करने के लिए प्रवृत्त होते हुए मण्डल को लीपकर यक्षिणी की पूजा का उपचार किया। मंत्र-जाप का स्मरण किया। क्षणान्तर में ही यक्षिणी आ गयी। चण्डाल ने कहा-"भगवती ! सकल इच्छित प्रकट करो। मेरे लिए विलास भवन करो।"
यक्षिणी ने वैसे ही भवन–भोजन आदि सामग्री उत्पन्न की। तब देवियों के समूह ने सुगन्धित तेल आदि के द्वारा चाण्डाल की मालिश की, श्रेष्ठ सुगन्धवाले उद्वर्तन से उबटन किया, पुष्पादि से वासित गर्म जल के द्वारा स्नान कराया। फिर सुकुमार सुगन्धित काषायिक वस्त्रों के द्वारा अंग पोंछकर, शुद्ध चीनांशुक वस्त्र पहनाकर विविध आभूषणों के द्वारा आभूषित करके, श्रेष्ठ आसान पर बैठाकर, स्वर्ण-रत्नमय भाजन में विविध रसों से निर्मित भोजन खिलाकर, आचमन आदि के द्वारा मुख व हाथ आदि की शुद्धि कराकर, रत्नजड़ित स्वर्ण-पलंग पर सुकुमार तूलिका से बने हुए बिस्तर को बिछाकर, उस देवशय्या पर स्थापित