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धन्य - चरित्र / 288 बार देने की गुरु - आज्ञा नहीं है। अगर फिर भी दी जाती है, तो हम दोनों के लिए ही वह विफल हो जायेगी। अतः वह विद्या तो देना अब शक्य नहीं है । तुम्हारा दुःख देखने में भी मैं समर्थ नहीं हूँ। यह विद्या से अभिमन्त्रित वस्त्र ग्रहण करो । यह पट स्वतः सिद्ध है । धूप, दीप आदि से पूजा करके जो माँगा जाये, वह देता है। इच्छित को पूर्ण करता है । अतः इसे ग्रहण करके अपने घर जाओ और सुखी होओ।"
यह कहकर मांतग ने पट दे दिया। उसने भी प्रणामपूर्वक ग्रहण किया । तब मातंग की आज्ञा लेकर अपने देश की ओर चला । स्वतः सिद्ध पट को प्राप्त करके विचार करने लगा - 'अब सर्व इच्छा की पूर्ति करनेवाला पट दिया है। कुछ पूजा आदि करके इच्छित प्राप्त कर लूँगा। मेरे सारे मनोरथ सफल होंगे। दुर्जनों के मुख को मलिन बनाऊँगा। नगर में मुझे फिर से सम्मान मिलने लगेगा। अतः जिन खलपुरुषों ने मेरी खराब स्थिति में मुझे दुर्वचन कहे थे, उन्हें शिक्षा दूँगा । अतः अब शीघ्र ही घर जाता हूँ । चिन्तित को सफल करता हूँ।'
इस प्रकार मनोरथों को करते हुए उत्सुकता के साथ क्षुद्र सार्थ के साथ चल पड़ा। अपने गाँव तक पहुँचने के लिए जब दो दिन जितना रास्ता बचा, तो रास्ते में चोर मिल गये । उन्होंने सार्थ लूट लिया। उसका वह पट भी चोरों ने ले लिया। पुनः दुःखी होते हुए वापस लौट गया। उस मातंग को खोजते हुए कितने ही दिनों के बाद उससे मिला। उसके पाँवों में गिर पड़ा। मातंग ने पूछा - "पुनः कैसे आना हुआ ?"
तब उसने पट की घटना कह सुनायी। उसकी दीनता को देखकर मातंग को अत्यधिक करुणा उत्पन्न हुई । तब उसने विद्या से अभिमंत्रित कामघट नामक घट दिया। उसकी पूजन विधि भी बतायी। सुचिवोद मातंग को नमन करके हर्षित होता हुआ अपने देश की ओर चला। कुछ दिनों में घर पहुँच गया। वहाँ जाकर चारों कोनों में गोबर से मण्डलाकार करके धूप, दीप, पुष्प, अक्षत, चन्दन आदि के द्वारा घट की पूजा करके घट को प्रार्थना की। जो भी माँगा, घट ने उसे दिया। प्रसन्न होकर सुचिवोद विचारने लगा - " स्वजन आदि को आमंत्रित करके उन्हें भोजन करवाऊँ, जिससे पूरे नगर में मैं विख्यात हो जाऊँ । उसके बाद घर-आभूषण आदि की प्रार्थना करूँगा ।"
इस प्रकार विचार करके भोजन-सामग्री माँगी । दैव के अनुभाव से सर्व सामग्री प्रकट हो गयी। तब स्वजन आदि को आमंत्रित करके उन्हें भोजन कराने लगा। वे सभी भी अनुपम दिव्य रसवती जाकर प्रशंसा करने लगे। तब कितने ही स्वजन, सम्बन्धी, बन्धु वर्ग के द्वारा बहुमानपूर्वक पूछा गया - "हे भाग्यनिधि