________________
धन्य - चरित्र / 287
देशान्तर जाते हो, तो मैं तुम्हारे आगे-आगे आऊँगी ।
इस प्रकार हे स्वामी! अर्थ की इच्छा से मैं समस्त भूमण्डल पर घूमा, पर कहीं भी धन - मात्र भी प्राप्त नहीं किया। अतः नहीं प्राप्त हुए धनवाला मैं निराश होता हुआ पीछे घर की ओर रवाना हुआ। अभी किसी पूर्वकृत शुभकर्म के उदय से तथा भवितव्यता के योग से आपके दर्शन हुए। आपके अतुल सामर्थ्य को मानकर आपकी सेवा के लिए प्रवृत्त हुआ। अगर आपके दर्शन और सेवा से मेरा दारिद्र्य नहीं जायेगा, तो अन्य कौन मुझे इस दारिद्र्य के समुद्र से तार सकेगा? अतः मैंने निश्चय करके आपकी सेवा प्रारम्भ कर दी। इसलिए हे स्वामी! कृपा करके मुझे दारिद्र्य - सागर से पार उतारें।"
सुचिवोद के इस प्रकार के वचनों को सुनकर प्रसन्न होते हुए मातंग ने कहा - " मैं तुम पर प्रसन्न हूँ । यक्षिणी - आराधना की इस विधि को ग्रहण करो।" तब सुचिवोद ने उठकर "महान कृपा " कहकर प्रणाम किया । तब मातंग ने चित्त की प्रसन्नतापूर्वक यक्षिणी मंत्र को आम्नायपूर्वक दिया । सुचिवोद ने उसे विनयपूर्वक ग्रहण किया । पुनः मातंग ने कहा - "यहीं मेरी सहायता से इस मंत्र को साधो, जिससे तुम्हारी निर्विघ्न सिद्धि होवे । "
तब सुचिवोद ने उसकी सहायता से अपने आपको कृतार्थ मानते हुए मंत्र साधा। फिर मातंग कहा -"अपने घर जाओ और मन - इच्छित करो।" यह कहकर उसे भेज दिया । सुचिवोद भी मातंग को नमन करके अपने घर की तरफ चला। मार्ग में जाते हुए अनेक मनोरथों की कल्पना करते हुए कुछ ही दिनों में अपने घर को प्राप्त हुआ। सबसे पहले यक्षिणी को साधने की सामग्री की । चौक में मण्डल का आलेखन किया। उसके लेपे जाने पर यक्षिणी की पूजा का उपचार किया। वहाँ बैठकर जब मंत्र का स्मरण करने लगा, तो मंत्र का मुख्य पद ही विस्मृत हो गया । "मुझे अब क्या चिंता ?" इस प्रकार अति हर्ष - युक्त मानस के द्वारा मार्ग में सैकड़ों मनोरथ को करने की उत्सुकता से तथा व्यग्र चित्त होने से मंत्रपद को भूल गया। अनेक प्रकार से ऊहा-अपोह किया, पर आवरण का दोष होने से मंत्रपद स्मृतिपथ पर नहीं आया। फालभ्रष्ट बंदर की तरह विलक्ष हो गया।
पुनः ग्राम-नगर- उपवन में मातंग की गवेषणा करते हुए पता चला कि अमुक स्थान में मातंग रहता है। तब वह उसके समीप गया । यथावस्थित देखकर मातंग ने उसके आने का प्रयोजन पूछा। उसने भी मंत्रपद भूलने की समस्त घटना बतायी। यह सुनकर करुणार्द्र होते हुए कहा - "हे भद्र! तुम भूलने के स्वभाववाले हो। विद्या तो एक व्यक्ति को एक बार ही दी जा सकती है। दूसरी