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धन्य - चरित्र / 280
रुसहेसरसमं पत्तं निरवज्जं इक्खुरससमं दाणं । सेयंससमो भावों हविज्जइ पुण्णरेहाए । । 1 । ।
भयवं रसेण भवणं धणेण भुवणं यसेण पूरियं सयलं ।
अप्पा निरुवमसुक्खेण सुपत्तदाणं महग्घवियं । । 2 । । ऋषभेश्वर के समान पात्र, इक्षु रस के समान निरवद्य दान तथा श्रेयांस के समान दान का भाव पुण्य की रेखा से ही प्राप्त होता है ।
भगवान को रस के द्वारा, भवन को धन के द्वारा तथा भुवन को यश से पूरित करते हुए और आत्मा को निरुपम सुख से भावित किया। इस प्रकार दान महा - मूल्यावान है I
थोड़ा भी सुपात्रदान महाफल के लिए होता है। जैसे कि वटवृक्ष वट के बीज से उत्पन्न होता है। जैसे धनदत्त के द्वारा पूर्वभव में एक बार दिया गया सुपात्रदान सकल समृद्धि को प्राप्त करानेवाला हुआ ।
इस प्रकार गुरु के द्वारा कहे जाने पर धनसार आदि के द्वारा विनयपूर्वक पूछा गया - "भगवान! यह धनदत्त कौन है? किस प्रकार से उसने दान दिया? उसके चरित्र को कहने की कृपा कीजिए ।” गुरु ने कहा
धनदत्त - कथा
पूर्वकाल में पृथ्वीभूषण नामक नगर में केरल नामक राजकुमार था। वह एक बार राज- वाटिका में गया। उसी समय महा-भाग्य के उदय से उसी नगर में सुरों व असुरों से परिवृत्त जगद्गुरु तीर्थंकर वहाँ पधारे। तब वह कुमार अतिशयों व प्रतिहार्यों की शोभा देखकर उन्हें वंदन करने के लिए गया । पंच-अभिगमपूर्वक जिनेश्वर को नमन करके उचित स्थान पर बैठ गया। तब जगद्गुरु ने भव्य जीवों के उपकार के लिए तथा अनादि भ्रम के निवारण के लिए देशना प्रारम्भ की। जैसे
"चौरासी लाख योनि रूप इस गहन संसार में परिभ्रमण करते हुए प्राणियों को दस दृष्टान्तों के द्वारा मनुष्यत्व दुर्लभ है । उसमें भी आर्यक्षेत्र, आर्यकुल, पूर्णायु, इन्द्रियों की नीरोगता, सदगुरु का संयोग धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है । उसको भी प्राप्त करके अनादि शत्रु लोभ, काम आदि से विवश जीव व्यर्थ ही समय को गँवा देता है। उसमें धन सभी अनर्थों का मूल है - यह जानना चाहिए। कहा भी है—
अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं धिगर्थम् दुःखसाधनम् ।।