________________
धन्य-चरित्र/275 हानि ही दिखाई देती है।"
धन्य ने कहा- "शुरू से ही मालव देश में रहते हो या अन्य देश से आकर वहाँ रह रहे हो?"
उन्होंने कहा-"नहीं, नहीं! हम तो अन्य देश के निवासी हैं। उदर-पूर्ति के लिए वहाँ गये थे।"
धन्य ने कहा-"उसके पूर्व आपका निवास स्थान कहाँ था?
उन्होंने कहा-"स्वामी! कर्मों की गति के बारे में क्या कहा जाये? जहाँ उदर-पूर्ति हो जाये, वही हमारा देश है।"
धन्य ने पूछा-"क्या आपके माता-पिता हैं?" उन्होंने कहा-"हाँ, है।" धन्य ने पूछा-"वे कहाँ हैं?"
उन्होंने कहा-"जिस ग्राम में निवास करते हैं, वहीं हमारे माँ-बाप व स्त्रियाँ हैं।"
धन्य ने विचार किया-"अहो! देखो! दरिद्रता की पीड़ा से पीड़ित होते हुए मुझे सामने पाकर भी नहीं पहचान पा रहे हैं, बल्कि भय को प्राप्त हो रहे है।"
तब धन्य ने उठकर बड़े भाइयों को आगे करके प्रणामपूर्वक कहा-"क्या मुझे नहीं पहचाना? मैं आपका छोटा भाई धन्य हूँ।"
इस प्रकार कहकर घर के अन्दर ले-जाकर, सेवकों के द्वारा अभ्यंगन, स्नान, मज्जन आदि करवाकर, अति अद्भुत वस्त्र-अलंकार आदि धारण करवाकर बड़े भाइयों को आगे करके हर्ष-सहित विनयपूर्व यथोचित अनेक प्रकार की अद्भुत रसोई खिलायी। आचमन (कुल्ला) करके घर के भीतरी हिस्से में भव्य-आसन पर यथोचित रीति से भाइयों को बिठाकर पाँच प्रकार की सुरभि से युक्त ताम्बूल आदि देकर, अत्यधिक सत्कारपूर्वक हाथ जोड़कर, कौशाबी को छोड़कर मालव-गमन आदि स्वरूप पूछा। उन्होंने भी ग्राम के बाहर निकलने आदि के सम्पूर्ण वृत्तान्त को कहा। वह सब सम्यक् प्रकार से जानकर धन्य ने उन्हें कहा-“हे पूज्यों! अब पूर्व में अनुभूत दुःखों का स्मरण न करें। चित्त की प्रसन्नता के साथ यहीं रहें। यह लक्ष्मी, यह महल, ये अश्व, ये हाथी तथा ये ग्रामादि सब कुछ आपके ही है। मैं भी आपका अनुचर हूँ। अतः आप जो इच्छा हो, वह ग्रहण करे। कहा भी है कि जो लक्ष्मी बन्धुओं के उपभोग के लिए नहीं है, वह प्रशंसा के योग्य नहीं है। समुद्र में अत्यधिक पानी होता है, पर किनारे पर रहनेवालों के लिए अनुपकारी होता है। इसी प्रकार भाइयों के उपभोग में न आनेवाली लक्ष्मी निरर्थक है। मेरु