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धन्य-चरित्र/272 नगरी में उसी रात्रि में अचानक अग्नि की लपटें उठने लगी। प्रबल वायु से प्रेरित उस अग्नि को बुझाने में कोई भी समर्थ नहीं हुआ। उस अग्नि के उपद्रव से धन्य के पिता का सम्पूर्ण घर भस्मसात् हो गया। घर से कुछ भी नहीं निकाला जा सका। केवल जैसे-तैसे करके धनसार और घर की स्त्रियाँ अपने देह-मात्र के साथ जीती हुई निकल सकीं।
इस घटना को किसी के मुख से सुनकर उसके तीनों पुत्र जब सुबह आये, तो सभी राज-मंदिर, छोटे-बड़े सभी घरों के भस्मावशेष को देखकर अत्यन्त उद्विग्न हो गये। परस्पर एक दूसरे को देखते हुए निःश्वास छोड़ने लगे। उन्हें मन ही मन दुःख करते हुए देखकर पिता ने कहा-"पुत्रों! अब दुःख करने से क्या? पाप के उदय से आज अगर यह सब भस्म हो गया है, तो क्या किया जा सकता है? अच्छा ही होगा, जिसके भाग्य के वश में अचिन्तित भी जंगल में मंगल हो जाता है, वह धन्य हरे-भरे घर को छोड़कर चला गया।"
इस प्रकार पिता के मुख से धन्य की प्रशंसा सुनकर उद्दीप्त कषायवाले वे कठोर वचनों के द्वारा तिरस्कार करने लगे-"हाँ। आज भी आपका उसके ऊपर ही ममत्व भाव है। अगर आपका वही गुणवान पुत्र है, तो आपको छोड़कर कैसे चला गया? देखो आपकी कृतघ्नता! भरण-पोषण तो आज तक हम ही करते आये हैं और प्रतिक्षण उस स्वेच्छाचारी की प्रशंसा करते हैं। अहो। इनके दृष्टि-राग की अन्धता!''
इस प्रकार अनेक प्रकार के वचनों के द्वारा उनकी निर्भर्त्सना करते हुए कितने ही दिन वहाँ व्यतीत किये। वहाँ रहते हुए स्त्री आदि के आभूषणों को बेचते हुए निर्वाह किया। शनैः-शनैः जो कुछ भी धन बाकी बचा था, वह भी कुछ गिर गया, कुछ विस्मृत हो गया और भूमि में रहा हुआ भूमिसात् हो गया। इस प्रकार की स्थिति में रहते हुए रात्रि में सेना और राज्य को गया हुआ जानकर अनेक सैकड़ों भीलों ने डाका डाला। वे शेष रहे हुए सभी आभूषण और वस्त्र चुराकर भाग गये। तब वे वस्त्र रहित और धन-रहित हो गये। यह संसार पुण्योदय में तो कुछ दिनों में ऋद्धिपूर्ण होता है, पर पापादेय में तो क्षणार्द्ध में ही वह सभी चला जाता है। जैसे-घड़ी पूरते समय तो साठ पल रूपी जल के द्वारा पूरी जाती है, पर खाली तो क्षणमात्र में हो जाती है।
तब एक बार आजीविका के उपाय को नहीं प्राप्त करते हुए घर में खोजते हुए एक हस्तमुद्रा प्राप्त हुई। उसे बेचकर आजीविका के लिए मालव-मण्डल में गये। वहाँ जाकर किसी कृषिकार के घर पर मजदूरी करके निर्वाह करने