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धन्य-चरित्र/268 की तरह मनवांछित का पूरण कौन कर सकता है? आपकी कृपा तो प्रतिदिन स्मृति-पथ पर ही रहती है। मैं कर्मों के द्वारा अशुभ उदय की प्रेरणा से घर से निकाला गया, पर आप जैसे स्वामी के द्वारा नहीं। कर्मों की गति बड़ी विषम है। इसलिए देशान्तर पर्यटन, स्थान-स्थान पर घर बसाने में व्यग्र, अस्थिर चित्त, प्रतिदिन अधिकाधिक वात्सल्य की उपेक्षा, पराधीनता, स्वामी से पूछे बिना जाने की लज्जा आदि कारणों से मैं मूर्ख सुख-समाचार तथा पत्रादि न भेज पाया। क्रम से प्राप्त अन्न-जल के संयोग से क्षेत्र-स्पर्शना के द्वारा प्रबल उदय होने से यहाँ आ गया। महाराज श्री मगधाधिप की कृपा से यहाँ सुखपूर्वक रहता हूँ। आपकी तरह इनकी भी महती कृपा है।"
तब प्रद्योत राजा ने श्रेणिक राजा के सम्मुख देखकर कुछ-कुछ हँसते हुए मस्तक को हिलाते हुए कहा-"आपकी वशीकरण की कला अत्यधिक श्रेष्ठ है, जिससे कि हाथों से छाया करते हुए भी, सात अंगों वाले राज्य की धुरा को धारण करने में धुरी के समान भी हमको छोड़कर बिना बुलाये भी आपके पास आ गये। जो हमारे राज्य का अलंकार है, उसे तो आपने किसी वशीकरण मंत्र के द्वारा वश में कर लिया है, जिससे कि हमारा नाम भी नहीं लेता, यहाँ स्थिरतापूर्वक रहता है। स्वप्न में भी अन्यत्र जाने की इच्छा नहीं करता। इसलिए आपके पास अवश्य ही कोई अद्भुत कला है। जिस राजा के बाँये और दाँये हाथ की तरह ये दोनों बुद्धि-निधान धन्य और अभय हैं, उसे किसी बात का डर? किस दुःख की चिंता? अतः आपका भाग्य विशाल है।" ..
तब मगध के अधिपति ने कहा-“स्वामी! अपने जो कहा, वह तथारूप ही है। जब आपने अभय को वहीं रख लिया था, उस समय जो भी लुटेरे व धूर्त आदि थे, वे तैयार होकर नगर में विडम्बना करने लगे। एक धूर्त ने तो कूट कला के द्वारा तथा वचन-रचना के द्वारा मुझे भी चिंता के आवर्त में डाल दिया। उसे कोई भी नहीं जीत पाया। ऐसे विकट समय में इस बुद्धि- निधि धन्य ने आकर उस धूर्त को पराजित किया और मुझे चिंता से मुक्त कर दिया। इसने अकेले ने ही मेरे राज्य की स्थिति की रक्षा की।
___मैंने भी उपकार के बहाने से अपनी कन्या को इन्हें देकर स्नेहसम्बन्ध से बांधकर रखा। फिर भी कितने ही समय तक मुझे, धन, कुटुंब आदि को छोड़कर ये अन्यत्र चले गये थे। अतः आपको भी मन छोटा नहीं करना चाहिए। कितने ही समय के बाद पाँच कन्याओं से विवाह करके महान विभूति के साथ यहाँ आये हैं, तब तक अभय भी यहाँ आ गया था। आपके साथ स्नेह-सम्बन्ध की वार्ता को धन्य ने कभी भी मुझसे नहीं कही। अतः स्वामी के