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धन्य-चरित्र/214
दानं भोगो नाशस्तिस्रो गत्यो भवन्ति वित्तस्य। यो न ददाति न भुक्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।
अर्थात् धन की तीन ही गतियाँ हैं, दान, भोग और नाश। जो न देता है, न भोग करता है, उसकी निश्चय ही तीसरी गति होती है।
अतः सत्पुरुषों का लक्ष्मी-लाभ में प्रधान फल दान है। भोग तो माध्यम है। जिस पुरुष के द्वारा इन दोनों में से एक भी नहीं किया जाता है, उसकी तीसरी गति तो होती ही है। पुण्य बल के पूर्ण होने पर दुर्गति-भ्रमण देकर लक्ष्मी तो जाती ही है। कहा भी है
पृथिव्याभरणं पुरुषः पुरुषाभरणं प्रधानतरं लक्ष्मीः ।
लक्ष्म्याभरणं दानं दानाभरणं सुपात्रं च।।1।। पृथ्वी का आभूषण पुरुष है, पुरुष का आभूषण प्रधान रूप से लक्ष्मी है, लक्ष्मी का आभरण दान है और दान का आभरण सुपात्र है।
अतः हे भव्यों! अति दुर्लभतर मनुष्य भव और धन प्राप्त करके सुपात्रदान में प्रयत्न करना चाहिए। जिसने धनयुक्त मनुष्य भव को प्राप्त किया, उसने दुग्ध-शर्करा के संयोग को प्राप्त कर लिया। इन दोनों को प्राप्त करके अभयदान, सुपात्रदान, अनुकम्पा दान और कीर्ति आदि दान में कैसे सफल नहीं हुआ जा सकता? धन लाभ का भी इस लोक में जब तक लक्ष्मी है, तब तक ही महत्त्व है। लक्ष्मी जाने पर तो मनुष्य तृण के समान है। कोई भी उत्तर तक नहीं देता। दान देते हुए लक्ष्मी जाती नहीं है, बल्कि स्थिर ही होती है। कदाचिद् पूर्व भव में संचित अत्यधिक पाप के उदय से धन के चले जाने पर भी दाता के लिए वह अति महत्त्व रूप नहीं होता, पर परलोक में अवश्य ही लोकोत्तर महत्त्व प्राप्त होता है। अगर धनी होते हुए भी कृपणता के दोष के कारण दान-मात्र ही नहीं देता, तो लोक में प्रभात के समय कोई उसका नाम तक नहीं लेना चाहता। अगर कोई भूल से उसका नाम ले भी ले, तो दूसरा उसको उपालम्भ देता है-"क्यों इस नीच का नाम लेते हो? यह अदृष्ट अकल्याणक है।"
इत्यादि अदाता के सहज फल हैं। अतः भव्यों को उभयलोक सुखदायक दान में अवश्य यत्न करना चाहिए।"
इस प्रकार मुनि की देशना को सुनकर मैं (धनकर्म के रूप को धारण करनेवाला चारण) मन में चमत्कृत होता हुआ चिंतन करने लगा-"अहो! अज्ञता से मैंने अति दुष्कर नरभव और धन को प्राप्त करके भी बहुत ज्यादा हार दिया। कुछ भी इस लोक या परलोक के लिए नहीं दिया। केवल दुर्गति-गमन को ही पुष्ट किया है। कृपणता के दोष से न तो दिया, न खाया। दीन के समान केवल