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धन्य - चरित्र / 248 सीधी तरह से बोलता है, न सीधी तरह से खाता है। मैं रात-दिन उसके पास ही रहता हूँ। कभी क्षण - मात्र भी किसी कार्य के लिए इधर-उधर जाता हूँ, तो यह सेवकों आदि की आँखों में धूल झोंककर बाहर निकल जाता है और इधरउधर दौड़ने लगता है । पागलों की तरह बोलता है और दौड़ता है। रोज तो घर के दरवाजे के आस-पास ही घूमता है, अतः उसे पकड़कर घर पर ले जाकर यत्नपूर्वक उसकी रक्षा करता हूँ। आज वह भागकर कहाँ गया - यह पता ही नहीं चल रहा। उसी दुःख से आज इतनी तीव्रधूप में भी मैं निकल पड़ा हूँ। अन्य कुछ भी प्रयोजन नहीं है ।"
तब किसी ने कहा-"इस चतुष्पथ पर आपके कहे अनुसार एक व्यक्ति घूम रहा है और पागलों की तरह हरकतें करता हुआ कह रहा है कि मैं इस नगर का स्वामी प्रद्योत राजा हूँ, ये मेरे सेवक हैं इत्यादि बोल रहा है। लोगों का समूह उसके पीछे दौड़ रहा है। उसे हैरान कर रहा है। वह भी लोगों पर धूल उछाल रहा है ।"
इस प्रकार के उसके वचनों को सुनकर अश्रुपात करते हुए अभय उन लोगों के साथ वहाँ गया । श्रेष्ठी, सेवकों तथा लोगों के द्वारा मिलकर उसे पकड़ा गया, पर क्षण-भर में ही अवसर पाकर वह फिर से भाग गया। पुन: पकड़ा गया, पर वह आगे नहीं चलता है। तब अभय अपने सेवकों के द्वारा घर से खाट पर रखवाकर मजबूत बंधनों से बंधवाकर सेवकों द्वारा खाट को उठाकर घर पर लाने लगा, तब पहले से सिखाया हुआ होने पर वह खाट पर बंधा हुआ अनाप-शनाप बकने लगा।
तब यह देखकर लोग कहने लगे - " ऐसे गुणवान श्रेष्ठी को इतना बड़ा दुःख दिखाई देता है। इस असार संसार में कोई भी पूर्ण रूप से सुखी नहीं है। किसी को भी कुछ तो दुःख होता ही है।"
इस प्रकार छलपूर्वक उसे घर ले गया। लोग भी चले गये। सभी श्रेष्ठी चिंता करते हुए घर चले गये। इस प्रकार कभी एक दिन छोड़कर, तो कभी दो दिन छोड़कर इसी प्रकार की क्रिया को करने लगा। श्रेष्ठी अभय भी पूर्वोक्त क्रिया के द्वारा उसे घर ले जाने लगा। इस प्रकार प्रतिदिन करते हुए प्रत्येक चतुष्पथ, त्रिक, चतुष्क आदि पथों पर, प्रत्येक पाटक पर यावत् प्रत्येक घर, प्रत्येक गोपुर, प्रत्येक उपवन, प्रत्येक वाटिका में सर्वत्र लोगों को ज्ञात हो गया । जहाँ-जहाँ वह जाता था, वहाँ-वहाँ लोग उसे देखकर कर्मों की निंदा करके तथा श्रेष्ठी की स्तुति - पूर्वक कहते थे - " अहो ! कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। इस प्रकार से सर्वत्र सर्व रीति से सुखी भी श्रेष्ठी जिस दुःख को अनुभव करता है,