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धन्य - चरित्र / 253
आपका भाग्य-बल ही काम करेगा।”
राजा ने कहा- "मेरा तो भाग्य है ही, क्योंकि उन दोनों की राग भरी दृष्टि से ऐसा अनुमान होता है । अतः तुम पुरुषार्थ करो। जरूर प्रयत्न सफल होगा । " दूती ने कहा - "जो आपने कहा, वह तो सत्य ही है, पर वहाँ प्रवेश करना अति - दुष्कर है । वणिक जाति अत्यन्त विचक्षण होती है । उसे ठगना बहुत दुष्कर है। पर पुरुषार्थ में कुछ भी कमी नहीं रखूंगी।"
इस प्रकार कहकर दूती अपने घर आ गयी। सोचने लगी कि राजा के आगे मैंने प्रतिज्ञा तो कर ली, पर बिना जान-पहचानवाले घर में किस उपाय से प्रवेश प्राप्त होगा? इस प्रकार चिंता के समुद्र में डूब गयी । तीन दिन बीत जाने के बाद राजा के पास आकर अन्तःपुर की चार सखियाँ और पाँच पुरुष माँगे । उन्हें लेकर अपने घर में आकर एक विशाल बर्तन में सुख से खाये जानेवाले विविध द्राक्षा, अखरोट, बादाम, सीताफल, नारियल के टुकड़े आदि की महान राशि के ढ़ेर से थालों को भरकर, अति अद्भुत चीनांशुक (एक प्रकार का रेशमी कपड़ा) से ढ़ककर, एक श्रेष्ठ तरुणी के हाथ में पकड़ाकर स्वयं महत्तरा बनकर गीत गाती हुई, आगे-पीछे राजपुरुषों से घिरी हुई श्रेष्ठी के घर को प्राप्त होती हुई अन्तःपुर के द्वार के पास पहुँची । वहाँ अन्तःपुर के द्वार रक्षकों ने पूछा - "यह क्या है?"
तब उस दूती ने आगे आकर कहा - " कल राजा के कुल-क्रम से आयी हुई कुलदेवी का महोत्सव था । आज उस देवी के प्रसाद का विभाजन किया जा रहा है। अतः राजा ने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक श्रेष्ठी के घर में प्रसाद भेजा है। राजा ने कहा कि श्रेष्ठी के अन्तःपुर में जाकर सेठानी के हाथ में ही देना । अतः हम लोग तो देने के लिए ही आये हैं ।"
तब द्वारपालों ने कहा - " श्रेष्ठी की आज्ञा के बिना हम आपको प्रवेश नहीं करने देंगे। पर आप तो राज- कर्मचारी है, अतः श्रेष्ठी से पूछकर हम आपको प्रवेश की इजाजत देंगे। अतः आप कुछ समय तक यहीं रुकें।"
इस प्रकार कहकर एक सेवक ने श्रेष्ठी के पास जाकर सम्पूर्ण बात कही। उसने कहा कि उन राज- कर्मचारियों से कहना कि श्रीमान राजाजी ने महती कृपा की, पर एक मुख्य सखी को ही अन्दर जाने की अनुमति दी जाती है। पर सत्कार तो उन सभी का करना। उन्हें कहना कि यही हमारे कुल की रीति है। श्रेष्ठी के कहे हुए कथन को सेवक ने जाकर उन्हें निवेदन कर दिया कि आप लोगों के मध्य से एक ही जन अन्दर अन्तःपुर में जा सकता है - यह श्रेष्ठी का आदेश है। तब वह दूती स्वयं थाल लेकर अन्तःपुर में चली गयी। दूर