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धन्य-चरित्र/252 यह कहकर दूती राजा के पास से चली गयी। राजा के कहे हुए चतुष्पथ पर आकर चारों ओर अच्छी तरह से देखा। बाद में वहाँ रहनेवाले लोगों से पूछा-"यह झरोखों की कतार किसकी है? यहाँ कौन रहता है?"
तब उन्होंने कहा-"इस महा-आवास का दरवाजा तो पश्चिम दिशा में अमुक पाटक में खुलता है। इसमें निवास करनेवाला कोई विदेशी श्रेष्ठी है। वह दाता, भोक्ता तथा एक मात्र परोपकार में रत रहनेवाला श्रेष्ठी छ: मास से भी पहले से यहाँ आकर रह रहा है। उसके सौजन्य के बारे में क्या कहा जाये? उसका बहुत बड़ा परिवार से युक्त भवन है। उनके मध्य उस श्रेष्ठी की आज्ञा से ही कोई रह सकेगा, पर विस्तार से कुछ भी नहीं जाना जा सकता है। ये झरोखों की कतारें तो अधिकतर बंद ही देखी जाती हैं। कोई भी इन झरोखों में नहीं बैठता है।"
यह सुनकर दूती सोचने लगी-"कोई खास खबर तो हाथ में नहीं आयी। अगर घर के मुख्य द्वार की ओर जाऊँ, तो शायद कुछ हाथ लगे।"
इस प्रकार विचार करके लौटकर धीरे-धीरे खोज खबर करते हुए उस घर के मुख्य द्वार पर पहुँची। वहाँ तो राज-दरबार की तरह अनेकों नगर-जनों तथा सेवकों से रुद्ध द्वार को देखकर पास के घर में कुछ जान-पहचान निकालकर उसके साथ बात-चीत करते हुए पूछा-"हे! इस महा-आवास में कौन रहता है?"
___ उसने उत्तर दिया-"दूर देश से आया हुआ श्रेष्ठी रहता है। सर्व गुणों से सम्पन्न, श्रेष्ठियों में शिरोमणि, परोपकार में रसिक ऐसा कोई भी आज तक नहीं दिखा, जैसा यह है।"
पुनः दूती ने पूछा-"इसका अन्तःपुर साथ में है या नहीं?"
उसने कहा -"है, पर किसी को भी अन्दर जाने की अनुमति नहीं हैं। मैं तो श्रेष्ठी के पास सैकड़ों बार जाता हूँ, पर अन्तःपुर में कभी नहीं गया । उसके देश का यही रिवाज है। अत्यधिक रूप-लक्षणवाली तथा अत्यधिक प्रीतिवाली स्त्रियाँ तो कभी प्रवेश को प्राप्त हो सकती हैं, पर पुरुष तो कभी भी नहीं। इस श्रेष्ठी को यहाँ रहते हुए छ: मास से कुछ ही समय अधिक हुआ है, पर मेरी पत्नी भी एक-दो बार ही अन्दर जा पायी है।"
__ इस प्रकार सारी बातें प्राप्त करके दूती ने राजा के पास जाकर कहा-"स्वामी! यह कार्य महा-कष्ट से साध्य है और उसमें भी भजना है कि कार्य सफल होगा या नहीं? आपके आदेश को पूर्ण करने की मैंने प्रतिज्ञा की है। अतः मेरे से जितना होगा, उतना तो मैं करने की कोशिश करूँगी, आगे तो