________________
धन्य-चरित्र/257 का उल्लंघन करने में समर्थ नहीं है। तो फिर कैसे मिलना सम्भव है? और भी, अगर इस लोक में अति गुप्त पाप किया जाये, तो अति दुर्गन्ध-युक्त लहसुन आदि के गुप्त भक्षण करने से उसके दुर्गन्ध आदि लक्षण से वह उजागर हो जाता हैं, तो घर के स्वामी द्वारा घर से निकाला जाना, लोक-निन्दा का पात्र बनना आदि अनेक दुःखों का समूह तुझ पर आ पड़ेगा। परलोक में तो कुम्भी में पकने की पीड़ा, तपी हुई लोहे के पुतली से आलिंगन, खून से सनी हुई उबलती हुई वैतरणी नदी में पार उतरना, छेदन-भेदन-ताड़न-तर्जन आदि अनेक प्रकार से नरकपाल आदि के द्वारा की हुई अवचनीय पीड़ा को सहन करना पड़ेगा। क्षण-मात्र भी विराम किये बिना क्षुधा आदि दस प्रकार की वेदना को अवश्य ही सहन करना पड़ेगा। वहाँ कोई भी इस दुःख से छुटकारा दिलानेवाला नहीं है।
वहाँ से भी निगोद में जो अनन्त दुःख हैं, वे तो वचनों से ही अतीत हैं। इस प्रकार के दुःखों के समूह को क्षण-मात्र सुख के लिए कौन अज्ञ स्वीकार करेगा?' इस प्रकार हे भगिनि! हमने अपनी आत्मा को शिक्षा दी, फिर भी यह मन राजा से विरत न हुआ। पुनः सवारी के समय बाजे आदि की ध्वनि को सुनकर मन उन्हें देखने के लिए मचलने लगा। पर क्या किया जाये? मध्य में रही हुई सूई की तरह विकल्प-कल्पना रूपी कल्लोल की कदर्थना से हम क्लेश का अनुभव करते हैं। अतः हमारा आना तो नहीं ही हो सकता। इसलिए हे भगिनि! तुम्हारे मन में दूसरी कोई युक्ति उत्पन्न होती हो, तो बताओ। जिससे हमारा मनोरथ और तुम्हारा आगमन सफल हो जाये।"
इस प्रकार के उन दोनों के कथन को सुनकर स्वभाव से जड़ता को प्राप्त होती हुई वह बोलने में भी समर्थ नहीं हुई। पुनः प्रेरित किये जाने पर वह बोली-“हे स्वामिनि! मैं क्या बोलूँ? राजा के आगे बीड़े का स्पर्श करके मैं आयी हूँ। यहाँ तो ऐसी विषम परिस्थिति है। अतः मैं तो इधर व्याघ्र और इधर नदी के संकट में गिर गयी हूँ। अब तो आप दोनों के ही हाथ में मेरी लाज है। चाहे रक्षा करो और चाहे डुबा दो। शास्त्र में भी चार प्रकार की बातें असीम कही गयी है। और भी, कहा है
अश्वप्लुतं माधवगर्जितं च स्त्रीणां चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम् । अवर्षणं चाप्यतिवर्षणं च देवो न जानाति कुतो मनुष्यः? ||
घोड़े का उछलना, वैशाख में बादल का गरजना, स्त्रियों का चरित्र तथा पुरुष का भाग्य-इनका न बरसना अथवा अति बरसना देव भी नही जानते, तो मनुष्य की तो बात ही क्या?"