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धन्य-चरित्र/247 देश आदि का अधिपति हूँ। ये सभी मेरे सेवक हैं।" इस प्रकार जो कुछ भी मुँह में आता, वह बकने लगा।
लोगों ने सोचा कि यह वायु के उठाव से अनाप-शनाप बकता है। इसके हृदय-कमल में प्राणवायु की विकृति हो गयी है। इसी कारण यह विकल आत्मावाला होकर कुछ भी बकता रहता है।"
इस प्रकार तीन चार घटिका बीत जाने पर अभय-श्रेष्ठी सेवकों के साथ पैदल ही दौड़ता हुआ चतुष्पथ पर आया। अपनी-अपनी दुकानों पर रहे हुए लोग यह सब देखकर आश्चर्य चकित होते हुए शंकाशील होकर उठते हुए श्रेष्ठी के समीप गये और प्रणाम करके पूछने लगे-“हे स्वामी! आप जैसे महा–इभ्य श्रेष्ठी का यों पैदल चलकर तीव्र धूप के समय आने का क्या प्रयोजन है? अगर कोई अति आवश्यक कार्य है, तो इन सेवकों को आदेश दीजिए। उन्हें कहना अगर अयोग्य प्रतीत होता है, तो फिर हमसे कहिए। ये सभी नगर-निवासी आपके गुणों के द्वारा खरीदे हुए दास के समान है। आपके आदेश मात्र से ही आपके द्वारा कहे हुए कार्य को करने के लिए मन-वचन-काया से तैयार हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। ऐसा कौन दुर्जन होगा, जो आपके कहे हुए कार्य को करने में प्रमाद करेगा। जगत में उत्तम आप जैसों के द्वारा ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्न काल में इस प्रकार का कष्ट करना युक्त नहीं है। अतः शीतल छायावाली हमारी दुकानों को अलंकृत कीजिए। पूज्य-पाद के आगमन से हमारी दुकान पावन हो जायेगी। यहाँ बैठकर कार्य का आदेश दीजिए। सिर के बल चलकर उस कार्य को क्षणार्ध में ही कर देंगे।"
इस प्रकार गुणों के वशीभूत हुए लोगों के कथन को सुनकर अश्रुपूरित नेत्रों से गद्गद् होते हुए श्रेष्ठी ने जवाब देते हुए कहा-" हे सज्जन भाइयों! जो कुछ भी आपने कहा है, वह सत्य है। मैं मन, वचन और काया से स्वीकार करता हूँ कि आप सभी मेरे शुभचिंतक है। मेरे कहे हुए कार्य को करने में आप सभी तत्पर हैं। सभी मुझ पर पूर्ण कृपा रखते हैं। पर मुझ पर एक बहुत बड़ी आपत्ति आ गयी है। उसी दुःख से प्रेरित होकर इस मध्याह्न के समय में भी मैं यहाँ दौड़ता हुआ आया हूँ, धन और लोभ से नहीं।"
तब लोगों ने कहा-“वह कौनसी आपत्ति है?"
श्रेष्ठी ने कहा-"दो-तीन महिनों से प्राणप्रिय, समस्त घर की चिंता को करनेवाला, परम विनय-गुण से युक्त, सर्व कार्यों में अति निपुण, घर की शोभा रूप प्रद्योत नामक लघु भ्राता किसी रोग के कारण अथवा वायु-प्रयोग के कारण अथवा किसी दुष्ट देवता के कारण प्रकृति से विकृत हो गया है। वह न तो