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धन्य-चरित्र/245 जहाँ रामचन्द्र ने समुद्र को उलांघने के लिए पुल बाँधा था, वहाँ पृथ्वीभूषण नामक नगर है। वहाँ अरिमर्दन राजा प्रबल प्रताप से भूषित होकर राज्य करता है। हम उसी नगर के निवासी हैं। उस नगर में जलमार्ग से अनेक जाति के तथा अनेक गुणों के कारक क्रयाणक वस्त्र-पात्रादि आते रहते हैं। अतः हमने विविध देशान्तरों की बातें सुनीं, तो देखने के लिए उत्कण्ठित हो गये। मन में सोचा कि यदि प्रचुर मात्रा में माल लेकर देशान्तर में जायेंगे, तो अति लाभ होगा और विविध देशों के दर्शन भी होगे। शास्त्र में भी कहा है
देशाटनं पण्डितमित्रता च, वाराङ्गना राजसभाप्रवेशः । अनेकशास्त्रार्थविलोकनं च, चातुर्यमूलानि भविन्त पञ्च ।।1।।
अर्थात् देशाटन, पण्डित लोगों की मित्रता, वेश्या, राजसभा में प्रवेश तथा अनेक शास्त्रों के अर्थ का विलोकन-ये पाँच चीजें चातुर्य का मूल होती है।
__ अतः देशान्तर-गमन में दो प्रकार के कार्य होते हैं। इस प्रकार विचार करके क्रयाणक से भरे हुए गाड़ों आदि को लेकर हम नगर से निकल गये। दो वर्ष तक मार्ग में जगह-जगह जाते हुए अनेक नगर, वन, पर्वत आदि तथा नये-नये आचार, वस्त्र, तीर्थ आदि को देखते हुए मन में प्रसन्नता को प्राप्त हुए छ: मास पूर्व हमने किसी पथिक से सुना कि वर्तमान समय में जैसी उज्जयिनी नगरी की शोभा है, वैसी किसी की भी नहीं है। वह तो साक्षात अमरपुरी जैसी है। जहाँ सोलह राजाधिराजों के स्वामी श्रीमान चण्ड प्रद्योत इन्द्र की तरह अति शुभ नीति से अखण्ड शासन करते हैं। उसकी नगरी में किसी भी कर्म के उदय से रोगादि को छोड़कर बाकी कोई भी उपद्रव नहीं होता। अगर आश्चर्य को देखने की इच्छा हो, तो उज्जयिनी नगरी ही जाना चाहिए, जिसके दर्शन-मात्र से पहले देखे गये सभी माणिक्य के आगे काँच की तरह प्रतीत होंगे। इस प्रकार के उसके कथन को सुनकर अन्य देश में जाने की इच्छा होते हुए भी उसे छोड़कर हम यहाँ आये हैं। पर जैसा सुना था, उससे कहीं ज्यादा ही देखने को मिला है। अति पुण्यवान तथा एकमात्र न्याय की दृष्टिवाले आपके दर्शन हुए, तो आज हमारी आँखें पावन हो गयीं। पुण्यवानों का दर्शन महान पुण्य के लिए ही होता है।
श्रेष्ठी के इस प्रकार कहकर विराम लेने पर प्रद्योत स्व-प्रशंसा से फूल गया। उसने कहा-“हे श्रेष्ठी! आप जैसों के आगमन से हम प्रसन्न हुए। आप यहाँ सुख से निवास करें। यथा-इच्छा व्यापार करें। आपको अगर कोई भी काम हो, तो यहाँ आकर हमें निवेदन करें।"
इस प्रकार कहकर श्रेष्ठ वस्त्र तथा पान आदि का बीड़ा देकर शुल्क