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धन्य-चरित्र/226
आठवाँ पल्लव
आठवें पल्लव में चण्डप्रद्योत राजा से मुक्ति की युक्ति को प्रकाशित करनेवाली अभयकुमार की अवशेष कथा का वर्णन किया जाता है।
चण्डप्रद्योत राजा के घर में चार अद्वितीय अमूल्य रत्न थे। कहा भी गया
जातौ जातौ यदुत्कृष्टं तत् रत्नमभिधीयते। अर्थात् प्रत्येक जाति में जो उत्कृष्ट होता है, वह रत्न कहा जाता है। इस लोकोक्ति के अनुसार पहला रत्न लेखहारी लौहजंघ नामक दूत था। दूसरा रत्न सतियों में प्रथम शिवादेवी नामकी मुख्य पट्टरानी थी। तीसरा रत्न दिव्य अग्निभीरु नामक देव-अधिष्ठित रथ था। चौथा अनल नामक गंधहस्ती था। चार दाँतोंवाले ऐरावत हाथी की तरह इन चमकते प्रभावी चारों रत्नों के द्वारा सभी राजाओं से पूज्यता को प्राप्त होता राजा चण्ड प्रद्योत बहुत ज्यादा द्योतित होता था।
लौहजंघ नामक दूत एक ही दिन में पच्चीस योजन जाता था। वह एक दिन राजा की आज्ञा से भृगुपुर गया। वह एक ही दिन में भृगुपुर पहुँच गया। पुनः दूसरे दिन स्वामी के द्वारा कहे हुए प्रतिलेखादि कार्य को लेकर एक ही दिन में उज्जैनी पहुँच गया। वहाँ वह जल्दी-जल्दी गमनागमन में भृगुपुरी के लोगों तथा मार्ग में रहे हुए ग्रामीण-जनों को आहार आदि तथा हुक्के आदि के लिए उद्विग्न करता था। उसकी कही हुई वस्तु लाने में थोड़ी भी देर हो जाती थी, तो वह उन्हें मारता था। प्रद्योत राजा का चहेता होने से उसे कोई भी कुछ भी नहीं कह सकता था।
__ इस प्रकार नित्य के गमनागमन से खेदित होते हुए उस नगरी के निवासी विचार करने लगे-"यह राजा का मान्य होने से न तो इसे खेदित किया जा सकता है, न मारा जा सकता है, किन्तु इसकी यह नित्य की पीड़ा कैसे सही जा सकती है? यह तो नित्य आता-जाता रहता है। अब इस दुःख का उपाय ही क्या है?"
इस प्रकार मंत्रणा करते हुए लोगों को कुबुद्धि में कुशल कुछ लोगों ने कहा-“हे लोगों! यह दुःख तो शिव के ब्रह्म-कपाल की तरह हमारी पीठ पर लग चुका है, जो कभी भी छुटनेवाला नहीं है, न ही इसकी आवाज कोई सुननेवाला है। अतः इस दुःख से छूटने का एक ही उपाय है, अन्य कुछ नहीं।"
लोगों ने पूछा-"कौन-सा उपाय?"