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सका।
धन्य - चरित्र / 238
तब राजा ने बुद्धि की कुशलता को प्रकट करनेवाले अभयकुमार से पूछा - "हे बुद्धि निधान ! अग्नि शमन का कोई उपाय है या नहीं?”
तब अभय ने कहा-“इसके प्रतिकार का उपाय सुनिए । अग्नि ही अग्नि की औषध है । अतः नवीन अग्नि को उत्पन्न करके पूजा आदि करके गीत - गान आदि के द्वारा उसका वर्धापन आपके द्वारा किया जाये, तो शांति हो जायेगी ।" इस प्रकार कहने पर राजा ने वैसा ही करके शुद्ध मंत्र आदि के प्रयोग से अग्नि को शांत किया और अग्नि का भय समाप्त हुआ । राजा ने यह सब प्रत्यक्ष देखकर प्रसन्न होकर अभय से वरदान माँगने के लिए कहा और अभय ने पूर्व की तरह ही उसे धरोहर के रूप में राजा के पास रखा ।
फिर एक बार अवन्ती में अशिव उत्पन्न हुआ । रोग, शोक, भूतादि अनेक उपद्रव उत्पन्न हुए, जिससे नागरिक अत्यधिक पीड़ा का अनुभव करने लगे । अनेक लोग श्मशान के मेहमान बन गये, समस्त नागरिकों को अत्यधिक दुःखों के कारण पराभूत देखकर राजा ने अभय से पूछा - " हे सर्व विद्याओं व कलाओं के रत्नाकर! इस महा–अशिव के उपद्रव से लोग पराभूत हैं। क्या इसके निवारण का कोई उपाय है?"
अभय ने कहा- " -“हाँ, है । अगर आपकी सभी रानियाँ समस्त शृंगार करके आस्थान मण्डप में आयें। वहाँ नजर के द्वारा ही आपकी जय हो, इस प्रकार रानियों के द्वारा बलि-विधान करके सभी गोपुरों में बलि फेंकनी चाहिए । तब अशिव करनेवाले प्रेतों के तृप्त हो जाने पर चारों दिशाओं में अशिव का निवारण हो जायेगा ।"
राजा के द्वारा दूसरे ही दिन वैसा ही करने के लिए शिवादेवी को कहा । परम शीलव्रत - धारिणी शिवादेवी ने स्नानादि विधिपूर्वक बलि बनाकर, शांति - मंत्रादि से मंत्रित करके, नमस्कार - वज्रपंजर स्तोत्र आदि के द्वारा आत्म-रक्षा करके नगर के सभी द्वारों पर बलि फेंकी। तीर्थ- जलादि के द्वारा नगर के चारों ओर शांति - जलधारा दी। इस प्रकार सभी क्षुद्र देवों को तृप्त करके वे घर आ गयीं । शीघ्र ही अशिव का नाश हुआ। तब प्रद्योत ने उस प्रकार से राज्य को निरुपद्रव देखकर पुनः प्रसन्न होकर अभय से चौथा वर माँगने के कहा। तब अभय ने कहा - "आज मुझे मेरे चारों वरदान प्रदान कीजिए । "
राजा ने कहा- "माँगो ।"
तब बुद्धि - कुशल अभय ने कहा - " मैं शिवा - माता की गोद में अनलगिरि हाथी पर बैठूं। आप महावत बनें तथा अग्निभीरू रथ की चिता बनाकर उसे