________________
धन्य-चरित्र/240 जीतकर, मालव देश में कीर्ति-स्तम्भ को स्थापित करके अनेकानेक लोगों पर उपकार करके अभयकुमार निर्भय होकर यहाँ आ गये हैं।"
श्रेणिक ने भी पुत्र के आगमन को जानकर हर्ष से पुलकित रोमांचवाले होकर बधाई देनेवाले को अनेकों इनाम दिये। फिर महा-महोत्सवपूर्वक दान व मान के साथ अभय के सम्मुख आये। पिता को आया हुआ देखकर अभय भी वाहन से उतरकर पैदल चलकर पिता के पास आया और उनके चरणों में गिर पड़ा। पिता ने भी अपने हाथ उठाकर गाढ़ स्नेह से आलिंगनपूर्वक मस्तक चूमकर, हर्ष से छलकते आँसुओं से भरी दृष्टि से उसे देखकर, गद्गद् होकर कुशल-क्षेम की वार्ता मात्र करके, फिर हाथी पर बैठाकर, सिन्दूर से मंगल-कृत्यों को करके नगर-प्रवेश करवाया।
अभय के आगमन से चन्द्रोदय से समुद्र की तरह राजा के मन में हर्ष तेजी से हिलोरें लेने लगा। पुरजन, महाजन, स्वजन आदि के गमनागमन से विशाल राजमार्ग भी छोटा प्रतीत होने लगा। अभय राजकीय लोगों के उपहारों को ग्रहण करके तथा उनकी कुशल-क्षेम पूछकर व खुशी के साथ पान का बीड़ा देकर भेजने लगा। इस प्रकार जो जिस प्रकार आता था, उसे उसी प्रकार सुख आदि के प्रश्न पूछकर भेजता था। धन्य भी राजा के साथ उसे लेने सामने आया हुआ था। राजा के बराबर के आसन पर ही बैठा हुआ था। क्रम से अवसर प्राप्त होने पर पर धन्य भी अनेक उपहार देने लगा, तब राजा ने अभय को इशारे से मना कर दिया। यह जानकर अभय ने अनेक शपथ आदि महा-आग्रह के कारण वचन की रक्षा-मात्र के लिए कुछ उपहार ग्रहण किये। मन में सोचा कि “यह कोई नया सज्जन पुरुष दिखायी देता है। राजा भी इससे अत्यधिक स्नेह व सम्मानपूर्वक बोलते हैं। अवसर आने पर जान जाऊँगा। पर यह गुणों की निधि-रूप प्रतीत होता है।"
फिर सभी को शिष्टाचारपूर्वक प्रसन्न करके भेजा और उसके बाद अपने ही घर के नौकर-चाकर आदि से बातचीत करके उन्हें भी भेज दिया। फिर भोजन का समय हो जाने पर सभासदों को रवाना करके राजा भोजन के लिए उठ खड़े हुए। अभय के साथ भोजन करके फिर एकान्त में बैठकर "कपटी श्राविका के द्वारा कपट से मैं ग्रहण कर लिया गया। इस प्रकार तब से लेकर जो कुछ हुआ और जो कुछ अनुभव हुआ, वह सभी वृत्तान्त राजा ने अभय से पूछा। अभय ने सारा आद्योपान्त विवरण कह सुनाया।
राजा भी वह सब सुनकर सिर हिलाते हुए आश्चर्यचकित होकर कहने लगा-“हे पुत्र! ऐसे संकट में से तुम ही निकल सके, दूसरा कोई होता, तो नहीं