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धन्य-चरित्र/235 की।
एक बार ऋतुराज के आगमन में प्रसन्न होते हुए राजा ने नगर के उपवन में गन्धर्व-गोष्ठी प्रारम्भ की। उस अवसर पर वत्सराज का यौगन्धरायण नामक मंत्री अपने स्वामी के समाचार प्राप्त कर वहाँ पर आया। उज्जयिनी में अन्य वेश बनाकर इधर- उधर त्रिपथ–चतुष्पथ आदि में घूमता हुआ इस प्रकार बोलने लगा
यदि तां चैव तां चैव चैवायतलोचनाम्।
न हरामि नृपस्यार्थे नाहं यौगन्धरायणः ।।1।। इस प्रकार बोलते नगर में घूमने लगा, पर उसके भावार्थ को कोई भी नहीं जान पाया। एक बार राजवाटिका में से निकलते हुए प्रद्योत राजा यह सुनकर कुपित हुआ, पर भाव से अनभिज्ञ होने से क्रोध को शांत किया। ऐसे-वैसे वेश को देखकर सोचा-कोई भ्रांत-चित्तवाला दिखायी देता है। अतः प्रलाप करता है।
एक बार प्रद्योत राजा ने विचार किया-"मेरी पुत्री वासवदत्ता को पढ़ाते हुए वत्सराज को बहुत से वर्ष हो गये। अतः अब उसकी गीत-विद्या की कला को देखना चाहिए। इन दोनों का गीत-उद्यम किस प्रकार से फलीभूत हुआ है।"
इस प्रकार विचार करके राजा ने प्रधान पुरुषों के मुख से वत्स राजा को आदेश दिया कि आपको कल प्रभात में वासवदत्ता को लेकर यहाँ उपवन में आना है। आपके उद्यम का प्रसाद किस प्रकार से निष्पन्न हुआ है, यह देखने की इच्छा है। इसी हेतु से आपको आना है।
वत्सराज ने भी कहा-"ठीक है, मैं आ जाऊँगा।"
इधर राजा ने दासी के द्वारा वासवदत्ता को कहलाया-"कल सुबह आप अपने अध्यापक के साथ उपवन में आ जायें। अत्यधिक दिनों में अभ्यास की गयी कला का आपको प्रदर्शन करना है। गीत-संगीत-रस-राग-कला आदि के विशारद भी वहाँ आयेंगे। अतः आपको अवश्य ही अपने अध्यापक के साथ आना है।"
तब वासवदत्ता ने भी कहा-"ठीक है।"
अब यथा-अवसर के ज्ञाता सुबुद्धि युक्त वत्सराज ने वासवदत्ता को कहा-“प्रिये! आज कारागार में से निकलने का सुअवसर है, क्योंकि राजा ने बाहर जाने का आदेश दिया हैं। अतः वेगवती के वेग के सामने कौन घुड़सवार हमारे पीछे दौड़ने में समर्थ होगा?"
इस प्रकार वत्सराज के कहने पर वासवदत्ता ने भी वैद्य के उपदेश की तरह इष्ट मान लिया। फिर वासवदत्ता ने वेगवती मँगवायी। इस अवसर पर किसी अन्धे बड़े निमित्तक को द्रव्य-दानपूर्वक प्रसन्न करके यौगन्धनारायण ने भी