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धन्य-चरित्र/225 इस प्रकार की शिक्षा देकर वह बंदी चला गया। श्रेष्ठी लज्जित मुखवाला होकर राजा को प्रणाम करके प्रसन्न हृदयवाला होकर अनेक लोगों से युक्त होकर अपने घर गया, क्योंकि विकट संकट से मुक्त होने पर कौन प्रसन्न नहीं होता? घर आकर श्रेष्ठी ने राजा के वचन और उनके उपकार का स्मरण करके दुष्टों के शंका करने के योग्य धनसार के छोटे पुत्र धन्य को अपनी कन्या गुणमालिनी हर्ष एवं उत्साहपूर्वक परणायी। बहुत सारा धन तथा वस्त्रादि प्रदान किये।
धन्य भी कुछ दिनों तक वहाँ रहकर पुनः राजादि से पूछकर छ: भाषाओं से आवृत्त श्रीराम की तरह छ: प्रियाओं से युक्त होकर राजगृह नगर की ओर चला। मार्ग में बहुत से राजाओं के उपहारों को ग्रहण करते हुए और अपनी कृपा को बरसाते हुए क्रमपूर्वक राजगृह नगर के उपवन को प्राप्त हुआ। श्री श्रेणिक राजा ने अनुचरों के मुख से धन्य के आगमन को सुना, तो अगवानी करने के लिए चारों सेनाओं से युक्त होकर सामने गया। हर्षपूर्वक जामाता का आलिंगन करके कुशल-वार्ता करके महा-महोत्सवपूर्वक नगर में प्रवेश कराया। नागरिकों ने अति अद्भुत पुण्य-प्राग्भार को देखकर गौरव सहित उसकी प्रशंसा की। पति के आगमन को सुनकर पिता के घर में स्थित सोमश्री-कुसुमश्री भी आ गयीं। पति के चरणों में नमन करके अन्तःपुर में देवियों के सौन्दर्य को भी लज्जित करनेवाले रूप से युक्त पत्नियों के साथ यथाविधि मिलन किया। कुशल-वार्ता पूछने के बाद शालिभद्र की बहन के द्वारा धन्य के चरित्र को सुनकर सभी चमत्कृत हुई और परमानंद को प्राप्त हुई। इस प्रकार आठ सिद्धियों के साथ योगी की तरह धन्य भी उन आठ सहगामिनियों के साथ दोगुन्दक देव की तरह सुख में रमण करने लगा। उसने बड़भागी होते हुए दुःखयुक्त विदेश में भी कीर्ति-लक्ष्मी रूप भोगभंगी को भोगा। जो उसने आठ प्रियाओं के साथ राजा के समीप के गृहपुर राजगृह में इन्द्र की तरह शोभा प्राप्त की, वह दान-धर्म का ही प्रसाद जानना चाहिए
।। इस प्रकार श्रीमद् तपागच्छाधिराज श्री सोमसुन्दरसूरि के पट्ट-प्रभाकर शिष्य श्री जिनकीर्तिसूरि द्वारा विरचित पद्यबंध धन्य-चरित्रवाले श्रीदानकल्पद्रुम का महोपाध्याय श्री धर्मसागर गणि के अन्वय में महोपाध्याय श्री हर्षसागर गणि के प्रपौत्र महोपाध्याय श्री ज्ञानसागर गणि शिष्य ने अपनी की अल्पमति द्वारा ग्रथित रचना- प्रबन्ध में कन्या-चतुष्टय-परिणय तथा राजगृह-प्रवेश-वर्णन नामक सातवाँ पल्लव समाप्त हुआ।।