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धन्य-चरित्र/220 प्रकार से परावर्तन हो, पर मूल से नहीं होता। अतः यह तो मूल प्रकृति से ही दिखायी देता है, वह तो प्रकृति से अन्य ही प्रतिभासित होता है। कृपण भी गुरु के उपदेश से दानादि देता है, फिर भी योग्य-अयोग्य के विभाग को देखकर ही करता है। हर किसी को नहीं देता, न ही इधर-उधर फेंकता है। महान कष्ट से तथा पाप उद्यम के द्वारा द्रव्यादि मिलता है। उसका व्यय जो करता है, उसका तो हृदय ही जानता है। दान करना लोक में मरण के सदृश जाना जाता है। घर के अन्दर रहा हुआ धनकर्मा तो जैसे किसी का धन किसी अवसर पर किसी वैर प्रकृतिवाले के हाथ में चढ़ जाये, तो वह यथा-तथा दृष्टि पर आवरण डालकर लुटा देता है, वैसे ही लुटा रहा है। अतः मुझे तो यही सत्य जान पड़ता है।"
कोलाहल सुनकर बड़ा पुत्र भी भ्रम में पड़ गया कि यह क्या उपाधि आ पड़ी है? इस प्रकार विचार करते हुए पुत्र ने चुपचाप घर के अन्दर जाकर कूट धनकर्मा के आगे सभी घटना कह दी। उसने भी उठते हुए "क्या मेरे द्वारा कल ही नहीं कहा गया था कि इस गाँव में धूर्त लोग ज्यादा आये हुए हैं? उनके मध्य में से यह कोई आया हुआ है। पर असत्य कैसे बोलेगा?" इस प्रकार बोलते हुए बाहर आया। सभी सेवक भी उठ खड़े हुए। तब धूर्त धनकर्मा ने मूल श्रेष्ठी को कहा-“कहाँ से आये हो? हे धूर्त! किसके घर में प्रवेश करने की इच्छा करते हो?"
मूल धनकर्मा ने कहा-"मैं ही इस घर का स्वामी हूँ। मेरी सम्पत्ति बहुत ही कष्ट से सम्पादित की हुई है। पर तुम कौन हो? जो कि धूर्तकला से मेरे ही घर में घुसकर मेरे ही धन को लूट रहे हो तथा लुटा रहे हो? अतः यहाँ से निकलो तथा बाहर चतुष्पथ पर साहुकारों के पास चलो, जिससे कि हम दोनों के सत्य-असत्य का विभाग हो सके। चोर की गति चोर ही है।"
इस प्रकार विवाद करते हुए चतुष्पथ में जाकर साहुकारों को इकट्ठा करके उनके आगे दोनों ने अपने-अपने दुःख कहे। चतुष्पथ पर समस्त नगरवासी लोग विचित्र वार्ता को सुनकर विस्मत रह गये। जो दुर्जन थे, वे दो-दो धनकर्मा को देखकर खुश हो गये और जो सज्जन थे, वे खेद को प्राप्त हुए कि "हा! संसार में कर्मों की गति विचित्र है, कर्मों के विषमोदय को बिना जिनागम और जिन के कौन जानता है? अब देखो! कर्म परिणाम भव्यों को कैसा नृत्य करवाता
सभी साहुकार उन दोनों को देखकर विस्मय को प्राप्त होते हुए कहने लगे-"इन दोनों के बीच तो रोम–मात्र भी न्यूनाधिकता नहीं है। अब क्या किया