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धन्य-चरित्र/212 मित्र, सेवक, गुरु आदि को ठगते हैं, उन्हें पीड़ा पहुँचाते है, उनका विश्वासघात करते हैं। कुल-जाति-देश-धर्म और लज्जा को छोड़कर मेरे लिए परिभ्रमण करते हैं। जो कोई नहीं करता, नहीं बोलता, वह सभी धनार्थी करता व बोलता है। एकमात्र श्रीजिन-वचन से वासित अन्तःकरण से गृहित पंच-महाव्रत-धारी के सामने मेरी नहीं चलती। वे विविध प्रकार से मेरा गोपन करते हैं, मेरा महत्त्व नष्ट करते हैं। मेरी संतति रूप जो कामभोग हैं, उन्हें भी नासिका के मल की तरह बाहर निकाल देते हैं। वन में जाकर अशोक वृक्ष के नीचे बैठकर भार के समान सब कुछ त्यागकर नग्नभाव को धारण करके मेरी संगति के त्याग की प्रतिज्ञा के साथ विविध देशों में पर्यटन करते हैं। जहाँ कहीं भी जन-समूह का संयोग होता है, वहाँ मेरी, मेरे संतान रूप काम-भोगों की निंदा करते हैं। वे अपनी वचन-रचना के द्वारा मेरी और विषयों की गूढ़ बातें बताकर सभी के चित्तों को मेरी ओर से तथा काम–भोगों की ओर से विमुख करते है। चपला, कुटिला, स्वैरिणी आदि कलंक देकर कितनों को गृह त्याग करवाते हैं। अपने समान बना लेते हैं। पुनः जप, तप आदि उपायों के द्वारा मुझे दासी बनाकर सेवा के कार्यों में मुझे खर्च करवाते हैं। जिनके घर में आहार-मात्र ग्रहण करते हैं, उसके आँगन में मेरे द्वारा लाखों स्वर्ण मोहरों की बरसात करनी ही पड़ती है। वे मुनि शुक्लध्यान से मेरे इच्छा-बीज को जलाकर केवलज्ञान प्रकट करते हैं। उस अवसर पर विविध देवों के समूह इकट्ठे होकर मेरे घर रूपी कमल को उनके चरणों के नीचे बिछाकर उन्हें कमल रूपी आसन प्रदान करते हैं। वे मुनि उसी आसन पर बैठकर मेरा निर्मूल उच्छेदन को करने का उपदेश देते हैं। बहुत से लोगों को अपने जैसे बनाते हैं। दूसरों को देशविरति देते हैं। वे क्या करते हैं? जो घर में रहकर भी व्यवहार को शुद्ध करनेवाले परिग्रह-परिमाण-व्रत को सत्य-संतोष की आम्नापूर्वक पालकर पहले से भी ज्यादा धन उपार्जित करते हैं। नीतिशास्त्र में कही हुई रीति से निस्पृह भाव दिखाते हुए काम-भोगादि में व्यय नहीं करते, बल्कि सात क्षेत्रों में हर्षपूर्वक खर्च करते हैं। अति गाढ़तर वीर्योल्लास तथा भावना डालकर मुझे बंधन में बाँध लेते हैं। वे प्रतिदिन प्रतिक्षण सभी के सामने मेरी निंदा करते हुए तथा तिरस्कार करते हुए ही सुने जाते हैं, फिर भी उनका घर छोड़ने में मैं समर्थ नहीं हूँ, प्रत्युत वृद्धि की अभिलाषा के साथ उन्हीं के घर पर रहती हूँ। एकमात्र कुशल पुण्यानुबन्धी पुण्य के बन्ध से मुझे बन्धन में डालते हैं, जिसके बल से जन्म-जन्म में मुझे उनका दासत्व भोगना पड़ता है। पग-पग पर निधान को दिखाते हुए चारों ओर से वृद्धिपूर्वक उनके पास रहना होता है। उनका कुछ भी प्रतिकूल करने में मैं समर्थ नहीं हूँ। अन्त में मेरा ही