________________
धन्य-चरित्र/216 है, जिससे कि जन्म से रहनेवाला इसके स्वभाव का परिवर्तन हो गया है। काल-ज्ञान शास्त्र में भी कहा है
"आजन्म प्रवृत्ति एक ही इशारे से प्रयत्न के बिना ही विनिमयता को प्राप्त होती है, तब स्वल्प ही आयु जाननी चाहिए।"
इस प्रकार जिसके मन में जैसा प्रतिभासित होता, वह वैसा ही बोलने लगता। जन-जन के मुख को कौन ढ़क सकता है? कुछ दिनों बाद किसी दिन राजद्वार पर जाकर बहुमूल्य उपहार ले जाकर प्रणाम करके आगे बैठ गया। राजा भी उस अभिनव महा-मूल्यवान उपहार को देखकर प्रसन्न होता हुआ उसे आदर सहित बुलाकर बातें करने लगा-“हे श्रेष्ठी! तुम्हारे चित्त में इस प्रकार की उदारता कैसे प्रकट हुई? पूर्व में तो पग-पग पर लोग तुम्हारी कृपणता के दोष को प्रकट करते रहते थे। अब तो प्रतिक्षण दान-भोगादि में तुम्हारी अति उदारता सुनी जाती है, यह सब कैसे? सत्य कहो।'
श्रेष्ठी ने भी पूर्वोक्त कल्पित मुनि-देशना आदि को प्रतिबोध का कारण बताया। राजा भी सुनकर चमत्कृत होता हुआ बोला-"अहो! जीव की गति अचिन्त्य है। सर्वज्ञ के बिना कौन जान सकता है?"
__ इस प्रकार कहकर यथोचित प्रसाद देकर “मेरे लायक कोई कार्य हो, तो कहना। मन में किसी प्रकार की शंका न रखना" इत्यादि वचन का अर्पण कर उसे भेज दिया। वह भी प्रणाम करके उठा और विचारने लगा कि दान से क्या नहीं होता? देव भी अनुकूल हो जाते हैं, तो मनुष्यों की तो बात ही क्या? इस प्रकार विचार करते हुए घर आ गया। प्रत्येक घर, प्रत्येक पथ और प्रत्येक ग्राम में याचक-जनों के द्वारा उसकी यश-शोभा का विस्तार किया गया। वह सर्वत्र विख्यात हो गया।
इधर जिस गाँव में मूल धनकर्मा गया था, उस ग्राम में कोई याचक नकली धनकर्मा से माँगकर इच्छा से अधिक धन-वस्त्र-आभरण आदि पाकर नकली धनकर्मा के यश को गाते हुए अपने गाँव को जाने की इच्छा से वहाँ आया। चतुष्पथ पर मूल धनकर्मा एक श्रेष्ठी की दूकान पर खड़ा हुआ व्यापार आदि वार्ता कर रहा था, उसी के बगलवाली दूकान पर वस्त्राभरण से भूषित वह याचक भी मार्ग पर जाता हुआ किसी के द्वारा पहचाना जाने से बुलाया गया। याचक भी उसके समीप जाकर नकली धनकर्मा का यश-वर्णन करने लगा-“हे अमुक श्रेष्ठी! लक्ष्मी से आश्रित लक्ष्मीपुर गाँव में दानवीर कर्ण को भी अधोमुखी करनेवाला साक्षात कुबेर के समान मूर्तिमान पुण्य-स्वरूप समस्त दाताओं का शिरोमणि धनकर्मा नामक श्रेष्ठी रहता हैं। उसने मेरे जैसे अनेकों के दारिद्रय का