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धन्य - चरित्र / 134 व्यवसाय किया और महा - परिश्रम के प्रसाद से बहुतर द्रव्य प्राप्त किया । वह सब मैं आपका ही उपकार मानता हूँ । अतः हे श्रेष्ठी ! यह लाख द्रव्य ब्याज सहित ग्रहण करो और विरोचन - सूर्य की ज्योति रूप मेरी आँख अर्पण करो । "
इस प्रकार के धूर्त के वचन सुनकर वाणी - कुशल गोभद्र श्रेष्ठी के द्वारा बहुत ही मृदु उक्तियों के द्वारा समझाये जाने पर भी वह नहीं माना, बल्कि वाचालता के द्वारा बहुत सारे कुतर्कों की वचन - रचना द्वारा झगड़ा प्रारम्भ कर दिया। जैसे कि- "बहुत सारे करोड़ों धन को प्राप्त करो, पर मेरे लोचन को देखकर लोभ के समुद्र में मत गिरो। तुम जैसे महा-इभ्यों के लिए मिथ्या - पाप वचन कहना युक्त नहीं है । नगर में जैसी तुम्हारी साधुता है, वैसी ही रखने में तुम्हारा महत्व अखण्डित रहेगा । अन्यथा तो विरुद्ध कथन करने पर विरुद्ध भाव की उत्पत्ति होने से महा आपदा को प्राप्त करोगे। अतः अपने साधुवाद को अखण्डित रखे और भी, इतने दिनों तक एक आँख के बिना लोक में 'काना" इस प्रकार के मिथ्या अभ्याख्यान को लोगों द्वारा प्राप्त करके मैंने सहन किया । अब तो इष्ट देव की कृपा से धन प्राप्त हो गया है, तो फिर नेत्र के विद्यमान रहने पर भी, नेत्र को छुड़ाने के लिए धन-युक्त होने पर भी मैं लोगों के अभ्याख्यान - वचनों को क्यों सहन करूँ? अतः मेरी आँख वापस करो। और भी, तुम्हारे जैसे महापुरुषों द्वारा भी यदि सार ग्रहण करके भी अपलाप किया जाता है, तो जगत में शुद्ध व्यवहार को तो तिलांजलि दे दी जायेगी। जगत का चक्षु रूप सूर्य ही यदि अन्धकार करेगा, तो प्रकाश करने में अन्य कौन समर्थ होगा? चन्द्रमा ही यदि विष की वर्षा करेगा, तो जगत को तुष्टि कहाँ से प्राप्त होगी? अतः हे गोभद्र! यदि कल्याण के इच्छुक हो, तो मेरा नेत्र वापस करो। मुझे और कुछ नहीं चाहिए ।"
इस प्रकार के धूर्त के वचनों को सुनकर किंकर्त्तव्यमूढ़ होते हुए गोभद्र श्रेष्ठी ने उस धूर्त को समझाने के लिए अन्य महा-इभ्यों को बुलाया। उन्होंने भी बहुत सी युक्तियों द्वारा समाधानादि उपायों का प्रयोग किया, पर इस धूर्त रूपी विद्युत - अग्नि में मेघ की तरह व्यर्थ ही साबित हुए ।
फिर वह धूर्त कपट रूपी नृत्यकला को करते हुए राजा की सभा में जाकर विशिष्ट सभाजनों के सामने प्रचण्ड वचनों के द्वारा समय का नाश करते हुए व्यंग्य आदि अर्थ से गर्भित वचनों का प्रयोग किया, जिससे कि राजा की सभा के सिरमौर सचिव आदि उसकी बातों का कुछ भी जवाब नहीं दे पाये। सभी उस धूर्त की कुयुक्तियों के अन्धकार में दिशामूढ़ हो गये । परस्पर एक-दूसरे का मुख देखने लगे । तब सम्पूर्ण सभा की ऐसी अवस्था देखकर राजा श्रेणिक अभय का स्मरण करते हुए और उसके वियोग का अनुभव करते हुए इस प्रकार बोले- 'हे सभासदों ! अगर अभय इस समय यहाँ होता, तो इस क्लेश को शान्त करने में कोई परेशानी नहीं होती, क्योंकि जहाँ सूर्य प्रकाशित होता है, वहाँ अन्धकार की परम्परा कैसे क्रीड़ा कर सकती है? अतः एकमात्र अभय के बिना यह सभा मुझे हर्षदायिनी नहीं है ।