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धन्य - चरित्र / 132
तब दूसरी ने कहा- "मैं चावल देती हूँ ।" तीसरी ने कहा- "मैं घी देती हूँ ।"
चौथी ने कहा-“मैं अति उज्ज्वल खाण्ड देती हूँ ।" इस प्रकार चारों ही पड़ोसियों ने अपने-अपने कहे हुए के अनुसार सामग्री लाकर दे दी। तब वह वृद्धा प्रसन्न होकर अपने लाड़ले के लिए खीर बनाने लगी। बालक श्रेष्ठ भोजन की आशा में प्रसन्नचित्त होकर घर के आँगन में खेलने लगा । वृद्धा ने शीघ्र ही खीर बना ली। कारणों का प्रबल योग होने पर कार्य होता ही है । फिर उसने पुत्र को बुलाकर भोजन के लिए बैठाया । थाल में घृत - खाण्ड युक्त खीर भरकर पुत्र को देकर स्वयं नजर लगने के भय से अन्यत्र चली गयी, क्योंकि माता का मन प्रति समय अनिष्ट की आशंका से डरता ही है । बालक खीर से भरे थाल को अति-उष्ण जानकर ठण्डा करने के लिए हाथ से हवा करने लगा ।
तभी संगम के घर के आँगन में अगणित पुण्यों की निधि रूप मासक्षमण के तपस्वी मुनि पारणे के लिए भिक्षा के लिए घूमते हुए बालक के भाग्योदय से आकर्षित की तरह आये । तब वह बालक मुनि को आता हुआ देखकर मुनि को घर में लेकर आया। विवेक रूपी भ्रमर के चित्त से ग्वाला होते हुए भी उस बालक ने खीर का थाल उठाकर अति उत्कट भाव से अस्खलित रूप से मुनि को बहरा दिया । देकर मुनि के पीछे सात-आठ कदम जाकर पुनः पुनः प्रणाम करके वापस घर आकर उस खीर के खाली थाल को उठाकर उसमें लगी हुई खीर को चाटने लगा । मन में विचार करने लगा—''अहो! मेरा महान भाग्योदय था कि मुनि ने मुझ गरीब का दिया हुआ दान ग्रहण किया, क्योंकि मैं महा-श्रेष्ठियों के घरों में देखता हूँ कि भिक्षा के लिए आये हुए मुनियों को महा-इभ्य सहस्रों विज्ञप्ति करते हैं, फिर भी वे कोई चीज लेते हैं और कोई चीज नहीं भी लेते। पर मेरे तो - मात्र एक ही बार विनती करने से आ गये और मन की प्रसन्नता के साथ ग्रहण किया । अतः मैं धन्यतम हूँ ।"
इस प्रकार मन ही मन में अनुमोदना कर रहा था कि उसकी माता आ गयी । बालक को थाली चाटते हुए देखकर "अहो ! मेरा पुत्र प्रतिदिन इतनी भूख को सहन करता है" इस प्रकार विचार कर पुनः खीर परोसी । फिर कहा-' - "पुत्र ! खीर की इच्छा पूर्ण हुई?”
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तब बालक ने “हाँ' इस प्रकार कहा । पर दिया हुआ दान नहीं बताया, क्योंकि दान देकर प्रकाशित करने से उसका फल चला जाता है । फिर वह खीर खाकर उठ गया । गरिष्ठ भोजन को खाने से रात्रि में उसको विसूचिका हो गयी। महान वेदना से पराभूत होता हुआ बालक सोचने लगा- "मेरे द्वारा इस भव में कुछ भी सुकृत्य नहीं किया गया, पर आज ही मेरे भाग्योदय से मुनि को दान दिया गया। वह दान मुझको सफल होवे । मुझे उन्हीं मुनि की शरण है । "
इस प्रकार स्वयं के द्वारा किये हुए सुकृत को खुश होकर बार-बार ध्याते