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धन्य-चरित्र/142 वहाँ अपाय-रहित प्रभुत्व में उपाय-सहित व्यवसायविदों ने भाग्यनिधि धन्य के उत्कट पुण्य-प्रभाव से थोड़े ही समय में अनेक कोटि स्वर्ण उपार्जन किया। पर उस पुर में राजा-चोर-ईति आदि का भय न होने पर भी, सुखपूर्वक व्यापार को लाभ आदि सुखों के होने पर भी अत्यधिक जनों से आकीर्ण होने से घनी बसति के कारण लोगों को पानी दुर्लभ होने लगा।
तब उस धन्यपुर के वासी नागरिक परस्पर कहने लगे-'इस नगर में सभी प्रकार का सुख है, पर महा-जलाशय के बिना तकलीफ होती है।"
इस प्रकार की बातें रात्रि में घूमनेवाले चर–पुरुषों के मुख से ज्ञातकर धन्य ने अति भव्य मुहूर्त में जलाशय खुदवाना शुरू किया। अनेक सैकड़ों की संख्या में कर्मकर सरोवर की खुदाई का कार्य करने में लग गये, उनके ऊपर रहनेवाले राजसेवक जल्दी-जल्दी कार्य करवाने लगे।
उधर राजगृह नगर में अपने घर से धन्य के चले जाने पर सूर्य के अस्त होने के साथ ही दिन-लक्ष्मी के चले जाने की तरह सम्पूर्ण लक्ष्मी भी शीघ्र ही चली गयी। पूरा घर श्री–विहीन हो गया।
यह बात सुनकर श्रेणिक भी क्रोधित हो गया। सभ्यों को कहने लगा-'हे सभ्यों! देखो दुर्जनों की दुष्टता कि मेरे जामाता से अमाप धन-प्रौढ़ता को पाकर भी उसके तीनों दुष्ट अग्रजों ने प्रतिदिन कलह-कुटिलता करके मेरे जामाता को उद्विग्न कर दिया। सज्जनों का शिरोमणि वह 'क्लेश के स्थान का दूर से ही त्याग कर देना चाहिए” इस आगम-वाक्य को सुनकर पता नहीं कहाँ चला गया है, क्योंकि
महापुरुषो विरोधस्थाने नैव तिष्ठति। अर्थात् महापुरुष विरोध के स्थान पर नहीं ठहरते हैं। इसलिए ये महापापी अधिकार के योग्य नहीं है।"
शिष्ट व्यक्ति का पालन तथा दुष्ट का निग्रह करना चाहिए। इस राजनीति का स्मरण करके उनको कारागार में डालकर दण्ड दिया। सभी ग्रामादि उनसे छीनकर उन्हें भिखारियों की हालत में छोड़ दिया।
तब धनसार न केवल धन से हीन हुआ, बल्कि उसकी स्पर्धा से धन के अनुगामी यश-कान्ति आदि गुणों से भी रहित हो गया। नाम से धनसार होते हुए भी अधनसार होकर सोचने लगा-'पहले उच्च वाणिज्य को करनेवाला मैं अब कैसे निम्न कोटि के वाणिज्य को करूँ?"
इस प्रकार मन में विचार करके अपने तीनों पुत्रों को बुलाकर कहा–'हे पुत्रों! अब यहाँ रहना शक्य नहीं है। अतः देशान्तर चला जाये, क्योंकि
देशान्तरे निःस्वानामुदरपूर्तिकरणार्थ
भिक्षावृत्तिमपि द्राक्षासदृशमाहुः । अर्थात् दूसरे देश में अगर धन रहित रहते हुए भिक्षा द्वारा भी उदर पूर्ति