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धन्य-चरित्र/172 सभी प्रहेलिकाओं, गूढ़ प्रश्नोत्तरों, संकेत तथा समस्या आदि की पूर्ति में कभी भी आलस्य को प्राप्त नहीं होती थी। वह चारों बुद्धियों में अति प्रवीणा थी, पर बिना किसी आलम्बन के साधने में औत्पातिकी बुद्धि में तो अत्यन्त प्रवीणा थी। अतः इस अभिमान में आकर उसने प्रतिज्ञा की थी कि 'उसके द्वारा कहा हुआ मैं नहीं जानु, पर मेरा कहा हुआ वह जान लेगा, तो मैं उसे अपना पति स्वीकार कर लूँगी। इस प्रकार कुमारी द्वारा की गयी प्रतिज्ञा की बात परम्परा से गाँवों और नगरों में फैल गयी।
शब्द-छन्द-अलंकार-दिशाशास्त्र के अभ्यास-मात्र से अपनी बुद्धि के प्रागल्भ्य को मानते हुए कितने ही गर्व से उत्तप्त हृदयवाले 'हमारे आगे वह कितनी है" इस प्रकार हृदय में धारण करते हुए परिणय करने को उत्सुक राजपुत्र आदि आते थे, वे उत्साहपूर्वक आकर मन्त्री-पुत्री सरस्वती के आगे जो कुछ भी गूढ़ समस्या आदि पूछते थे, उस-उस का हार्द वह मन्त्री-पुत्री शीघ्र ही विशद रीति से कह देती थी, पर कहीं भी स्खलित नहीं होती थी। इस प्रकार प्रतिदिन पाणिग्रहण की इच्छा से अपने हृदय में कल्पित अनेक गति से ग्रथित समस्या को पूछते थे, पर वह कन्या सुनने मात्र से ही जवाब दे देती थी, तो वे लोग उदास मुख करके वापस लौट जाते
थे।
एक बार मन्त्री-पुत्री सरस्वती ने अपने बुद्धि-कौशल्य को दिखाने की इच्छा से राजा को साक्षी करके सभी स्फुरित गर्ववाले पण्डितों को दो श्लोक पूछे। जैसे
गङ्गायां दीयते दानमेकचित्तेन भाविना।
दाताऽहो! नरकं याति प्रतिग्राही न जीवति।। अर्थात् गंगा में एक चित्त से दान दिये जाने पर दाता नरक में जाता है और लेनेवाला जीवित नहीं रहता। तथा
का सरोवराण सोहा? को अहिययरो दाणगुणे जाओ?
अत्थग्गहणे को निउणो? मरुधरे केरिसा पुरिसा? अर्थात् सरोवरों की शोभा क्या है? दानगुण में सबसे बढ़कर कौन है? अर्थ-ग्रहण में निपुण कौन है? मरुधर में पुरुष कैसे होते हैं?
इस प्रकार दो पहेलियाँ भूर्जपत्र पर लिखकर एक दासी के साथ भेजी। इन दोनों का अर्थ कोई भी अतिशय ज्ञान से वर्जित पुरुष नहीं जान सकता था, अतः आबाल-गोपाल में ये दोनों श्लोक ख्यात हो गये। धन्य ने जब ये श्लोक पढ़े, तो तुरन्त उसका प्रत्युत्तर लिख दिया
मीनो लाता गलो देयं! दाताऽत्र धीवरः । ___ फलं यज्जायते तत्र तयोस्तद्विदितं जने।। अर्थात् गंगातट पर कोई भी मछुआरा मत्स्य के वध के लिए प्रवृत्त हुआ, उस