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धन्य - चरित्र / 185
लिए अनेकों क्षय को प्राप्त हुए, होते हैं और होंगे। लक्ष्मी को तो कोई भी नहीं बाँध सका। पुराणादि में भी कहा है
लक्ष्मी-सरस्वती का संवाद
एक बार लक्ष्मी और सरस्वती में विवाद हो गया। सरस्वती ने कहा- 'मैं ही जगत में बड़ी हूँ, क्योंकि मेरे द्वारा स्वीकृत लोग ही सम्मान को प्राप्त होते हैं, सर्वार्थ उपायों को जानते हैं। कहा भी है- 'अपने देश मे तो राजा पूजा जाता है, विद्वान तो सर्वत्र पूजा जाता है ।' तुम्हारे रूपये-पैसे आदि तो अगर मैं सिर पर स्थित होऊँ, तभी व्यापार के लिए व्यवहार मे लाये जाते हैं । अतः मैं ही बड़ी हूँ ।"
तब लक्ष्मी ने कहा-“तुमने जो कुछ कहा, वह तो वचन - मात्र है । तुम्हारे द्वारा किसी की भी सिद्धि नहीं होती । तुम्हारे द्वारा अंगीकृत पुरुष मेरे लिए सैकड़ों-हजारों देशों-विदेशों मे घूमते हैं, मुझे अंगीकार किये हुए पुरुष के पास में आते है, सेवक के समान उनके आगे खड़े रहते हैं । कहा भी हैवयोवृद्धास्तपोवृद्धा ये वृद्धा बहुश्रुताः ।
ते सर्वे धनवृद्धानां द्वारे तिष्ठन्ति किङ्कराः । ।
अर्थात् वय से जो वृद्ध है, तप से जो वृद्ध हैं और जो वृद्ध बहुश्रुत हैं, वे सभी धनवृद्ध लोगों के द्वार पर किंकर की तरह खड़े रहते हैं ।
अनेक चाटु वचन कहते हैं, असद् गुणों के आरोपण रूप उपमाओं द्वारा उत्प्रेक्षादि से वर्णन करते हैं, छत्र-बन्ध, हार-बन्ध आदि के द्वारा उन धनपतियों के गुणों को गुंथने में अपने चातुर्य को दिखाते हैं। इस प्रकार करके अगर वें श्रीमान प्रसन्न हो जाते हैं, तो विद्वान का मन हर्षित हो जाता है। अगर प्रसन्न नहीं होते, तो विषाद का वहन करता है । अन्य - अन्य स्तुति-रूप चाटु-वचनों को बार-बार बोलता है, क्योंकि कहा भी है
दृशां प्रान्तैः कान्तैः कलयति मुदं कोपकलितै - रमीभिः खिन्नः स्यात् धन धननिधीनामपि गुणी । उपायैः स्तुत्याद्यैः कथमपि स रोषमपनयेद् अहो! मोहस्येयं भव भवनवैषम्यघटना ! ।। अर्थात् दृष्टि पड़ते ही बड़े-बड़े सुन्दर गुण-वर्णनों के द्वारा धनी की प्रसन्नता को प्राप्त करता है, कोप को प्राप्त होने पर ही वही विद्वान खिन्न होता हुआ बुद्धि की निधि होते हुए भी धन की निधि रूप उनके कोप को अनेक उपायों और स्तुतियों के द्वारा किसी भी प्रकार से दूर करता है । अहो ! धन-मोह के लिए होनेवाले इस वैषम्य को भव में होते हुए देखो ।
अतः तुम्हारे द्वारा अंगीकृत पुरुष मेरे द्वारा अंगीकृत पुरुषों के प्रायः दास ही होते हैं। मुझे अंगीकार किये हुए के दोष भी गुण को प्राप्त होते हैं । अतः जगत में मैं ही बड़ी हूँ ।