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धन्य - चरित्र / 192 बहू ने कहा- "घर के अन्दर भद्रासन पर उसे बिठाया है, अतः आप वहाँ जाकर सुख से शिष्टाचारपूर्वक बात-चीत करके उसके मन को प्रसन्न करके घर पर रहने के लिए कहें
तब बहू के साथ जाकर सास उस वृद्धा से विनयपूर्वक कहने लगी- "हे माता! आप आनन्द से सुखपूर्वक अपने घर की तरह हमारे घर में रहिए । मन में किसी प्रकार की शंका न रखें। मेरा ऐसा भाग्य कहाँ कि आप जैसे वृद्धों की सेवा कर पाऊँ? आप तो मेरी माता के समान हैं। मुझे अपनी पुत्री ही मानें। हमारे महान भाग्योदय से तीर्थ-रूप आप हमारे घर पर आयी हैं । इन चारों बहुओं को दासी की तरह आपकी आदेशकारिणी समझें। खान-पान - स्नान - शयनोत्थान आदि जो भी कार्य होगा, वह आप निःसंकोच कह देना । वे सभी कार्य हम सिर के बल दौड़ते हुए खुशी-खुशी करेगें । "
यह सुनकर बुढ़िया ने कहा- "हे भद्रे ! तुमने सही कहा है, पर तुम्हारे पति आकर बहुमान - सहित अत्यधिक आदर से रखेंगे, तो ही मैं स्थिर - चित्त से निवास करूँगी।”
यह सुनकर गृहस्वामिनी ने कहा - " अगर इसी से आपको प्रसन्नता मिलती है, तो वैसा करना ही अच्छा है। मेरे पति तो इस प्रकार के कार्यों को परम हर्ष-युक्त तथा उत्साहपूर्वक सदा प्रसन्नता के साथ निर्वाह करते हैं ।"
बुढ़िया ने कहा - " यद्यपि ऐसा है, फिर भी उनकी आज्ञा के बिना मेरा यहाँ रहना नहीं हो सकेगा ।"
गृहस्वामिनी ने कहा-" उनको बुलवाकर अभी आज्ञा दिलवाती हूँ।" बुढ़िया ने पूछा - "वे कहाँ गये हैं?
गृह-स्वामिनी ने कहा - " देशान्तर से कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण आया हुआ है, उसके पास धर्म-श्रवण कर रहे हैं। उन्हें अभी बुलाती हूँ ।"
बुढ़िया ने कहा - " ऐसा है, तो उन्हे धर्म-श्रवण करने में अन्तराय मत दो।" गृह-स्वामिनी ने कहा- "ओह! ऐसे लोग तो अपने उदर की पूर्ति हेतु बहुत आते रहते हैं । अतः गृह-कार्य का नाश क्यों किया जाये ?"
यह कहकर दौड़ते हुए जहाँ अन्दर के भाग में रहकर अन्य बहुएँ श्रवण कर रही थीं, वहाँ जाकर गृहद्वार के अन्दर रहे हुए अपने एक सेवक को दो-तीन बार आवाज देकर बुलाया। वह भी श्रवण में रसित चित्तवाला होने से दुःखी होता हुआ आया। सेठानी ने कहा - " जाकर श्रेष्ठी के कान में कहो कि सेठानी घर के अन्दर बुलाती है।
उसके द्वारा वैसा ही किये जाने पर श्रेष्ठी ने रोषपूर्वक कहा - "ऐसा कौन–सा बड़ा कार्य आ पड़ा है, जिससे इस अवसर पर भी बुला रही है। जाओ-जाओ, उसे कह दो कि जो भी कार्य है, उसे ढ़ककर रख दो । चार घड़ी के