________________
धन्य-चरित्र/196
तब सेठ ने कहा-“माता! मैं उसे मना कर देता हूँ।" वृद्धा ने कहा-"क्यों दूसरों को अन्तराय की जाये?"
गृहपति ने कहा-"आपके दुःख के कारण को हटाने में हमें कोई भी दोष नहीं लगेगा। अतः इस स्थान से उठाता हूँ। ब्राह्मण तो अन्यत्र जाकर भी कहेगा। उसका यहाँ क्या लगता है?"
इस प्रकार कहकर दौड़ता गृहपति वहाँ जाकर क्रोधित होकर कहने लगा
"हे भट्ट! तुम इस प्रदेश से उठो! बिना कारण यहाँ क्यों कोलाहल करते हो?"
तब वहाँ जो थोड़े से लागे बचे थे, उन्होंने कहा-"इस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने क्या तुम्हारा कुछ लिया है? क्या तुम्हारे पास कुछ माँग रहा है? यह तो तुम्हारे भाग्योदय से कोई साक्षात् ब्रह्मा के रूप में आया है। अतः तुम विज्ञ-निपुण, शास्त्रविद होकर भी इस प्रकार हीन-जनोचित वचन क्यों बोलते हो?"
तब श्रेष्ठी ने कहा-"मैं तुम्हारा वचन-चातुर्य जानता हूँ। इस प्रकार का चातुर्य और किसी के आगे दिखाना, मेरे आगे नहीं। अगर तुम लोगों को सुनने का इतना ही शौक है, तो इसे ले जाकर अपने घर में बिठाकर क्यों नहीं सुनते? मेरे घर में क्यों वितण्डा फैला रखी है? अतः यहाँ से सीधे-सीधे उठ जाओ, अन्यथा गले में हाथ देकर सेवकों द्वारा निकलवाऊँगा। यहाँ एक क्षण नहीं बैठना। शीघ्र जाओ।"
इस प्रकार के अनादर-वाक्य को सुनकर उतरे हुए मुख से निंदा करते हुए सभी उठ गये। ब्राह्मण भी उठ गया। लक्ष्मी के आगमन को जानकर उसी वन में चला गया।
गृहपति ने भी घर में आकर वृद्धा से कहा-“माता! आपके कानों में शूल को पैदा करनेवाले ब्राह्मण को मैंने निकाल दिया है। युक्तियुक्त वाक्यों को कहकर निकाला हुआ वह कहीं चला गया है। सभी लोग भी अपने-अपने घर चले गये हैं। अतः हे माता! आप सुखपूर्वक यहाँ रहें।"
बुढ़िया ने जाना-"सरस्वती तो अपमानित होकर चली गयी है। अतः मैं भी वहाँ जाकर अपने उत्कर्ष-स्वरूप को पूछती हूँ।"
इस प्रकार विचार कर गृह-स्वामिनी को बोली-"इस झोली को यत्नपूर्वक भव्य स्थान पर रख दो, मैं विचारभूमि (स्थण्डिल) को जाती हूँ।"
गृहपति ने कहा-"मैं जलपात्र लेकर आपके साथ आता हूँ।"
उसने कहा-"नहीं, क्योंकि लोग इस प्रकार देखकर भ्रम में आकर चर्चा करने लगेंगे। तुम्हारे जैसे नगर प्रमुख के द्वारा इस प्रकार करना उचित नहीं है। अतः मैं अकेली ही जाऊँगी। देह चिंता के समय मुझे मनुष्य की संगति नहीं रूचती।"
"आपका आदेश ही प्रमाण है, तर्क नहीं करना चाहिए"-इस प्रकार कहकर जलपात्र दे दिया।