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धन्य-चरित्र/200 से हाथी-घोड़े-पैदल आदि सैन्य करूँगा। तब सेना के द्वारा अमुक देश को जीतकर राज करूँगा। इस प्रकार शहद के घट को उठाये हुए पुरुष की तरह आर्त्त-ध्यान करते हुए विचार करने लगा-"किसी भी उपाय से इस स्वर्ण को ग्रहण करूँ।" इस प्रकार वहीं बैठकर चिंता करते हुए विकल्पों के झूले में झूलने लगा।
दूसरा राजसेवक ग्राम के अभिमुख होकर कितनी ही दूर अकेला चलने लगा। पर थोड़ी ही दूर जाने के बाद सोचने लगा-"राजा ने तो दोनों को आज्ञा देकर भेजा था। मैं अकेला जाकर वृत्तान्त निवेदन करूँगा, तो राजा कहेगा कि दूसरा कहाँ गया? यह पूछने पर क्या उत्तर दूंगा? सही-सही कहने पर तो पता नहीं क्या होगा? अतः अकेले जाना ठीक नहीं है। इसे लेकर ही जाता हूँ।"
इस प्रकार मन में पक्का करके ऊँची जगह जाकर जोर से उसे बुलाया। पहले ने भी सुन लिया। उसने उस द्रव्य में आसक्त होकर ऊपर आकर हाथ के इशारे से तथा जोर से जवाब दिया-"तुम जाओ। मैं तो बाद में आऊँगा।"
यह सुनकर दूसरे ने फिर बुलाया, तो भी पहले ने पूर्व के समान ही उत्तर दिया। इस प्रकार बहुत बार बुलाने पर भी वह नहीं आया, तो द्वितीय के मन में शंका उत्पन्न हुई कि "मेरे द्वारा बार-बार बुलाने पर भी क्यों नहीं आता? कोई कारण अवश्य है। मुझे वहाँ जाकर देखना चाहिए।"
इस प्रकार विचार करके लौटकर पहले सेवक के पास जाने लगा। प्रथम सेवक ने उसको आते हुए देखकर चिल्लाकर कहा-"तुम जाओ-जाओ। मैं भी आता हूँ। क्यों देर करते हो?"
इस प्रकार कहने पर भी वह शंकाशील होता हआ वहाँ आ गया। स्वर्णमयी शिला को देखकर विस्मयपूर्व सिर धूनते हुए कहा-"भाई! तुम्हारी कुटिलता ज्ञात हो गयी। मुझे भी धोखा देकर इस अरण्य में स्थित सुवर्ण-शिला को अकेले ही ग्रहण करना चाहते हो। इस अपरिमित द्रव्य को तुम अकेले कैसे पचा पाओगे? हम विभाग करके ग्रहण करेंगे।"
तब उसने कहा-"तुम्हारा यहाँ कोई लाग–भाग नहीं है। यह सारा मेरा है, अतः मैं ही ग्रहण करूँगा। मैंने तो सबसे पहले तुम्ही से कहा था कि आओ, वहाँ जाकर देखते है कि वह चमकती वस्तु क्या है? तब तुम्हीं ने कहा कि तुम ही जाओ। तुम्हारे पूर्वजों द्वारा स्थापित वस्तुओं को पोटली में बाँधकर घर ले आना। मुझे मत देना। ऐसा कहकर तुम तो आगे चले गये थे। अब विभाग माँगते हुए अपनी बात क्यों नहीं याद करते? मैं तो साहस करके यहाँ आया हूँ। मेरे पुण्य से प्राप्त हुआ है। अतः यह मेरा है। तुम्हारा यहाँ क्या है? जैसे आये हो, वैसे ही अपने घर चले जाओ। इसमें से कोड़ी जितने मूल्य का भी नहीं दूँगा। वृथा क्यों बैठे हो? यहाँ से चले जाओ। तुम्हारी मेरी दोस्ती अब नहीं हो सकेगी।"
उसके इस प्रकार के वचन सुनकर लोभ से अभिभूत होकर क्रोधित होते हुए