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धन्य - चरित्र / 184 प्राप्त लक्ष्मी असार है, केवल कर्म - बन्ध का हेतु है । परमार्थ को नहीं जाननेवाले संसारियों की लक्ष्मी काश की लकड़ी के समान है। जैसे - काश की लकड़ी जब त्वचा को छेदकर पेट में चली जाती है, तो प्राणों को सन्देह में डालनेवाले रोगों की उत्पत्ति हो जाती है। इसलोक में तो जहाँ लक्ष्मी है, वहाँ भय पीठ पीछे लगा ही रहता है और अनेक विघ्न भी संभवित है, क्योंकि
दायादाः स्पृहयन्ति तस्करगणा मुष्णन्ति भूमीभूजो, गृह्णन्ति च्छलमाकलय्य हुतभुग् भस्मीकरोति क्षणात् । अम्भः प्लावयते क्षितौ विनिहितं यक्षा हरन्ति हठाद्, दुर्वृत्तास्तनया नयन्ति निधनं धिग् बह्वधानं धनम् ।। अर्थात् लेनदार स्पृहा करने लगता हैं, चोर चुरा लेते हैं, राजा छलपूर्वक ग्रहण कर लेता है, अग्नि क्षण-भर में ही भस्म कर देती है, पानी में डूब जाता है, पृथ्वी में रखा हुआ धन यक्ष हठपूर्वक ग्रहण कर लेते हैं, बुरी नीतिवाले पुत्र मरण प्राप्त करा देते है, धिक्कार है! यह धन बहुत ही अनर्थ पैदा करनेवाला है।
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अतः भवाभिनन्दियों के लिए तो इस लोक में धन निश्चय ही क्लेश का कारण है । जिस लक्ष्मी को हजारों की संख्या में संचित करके भी उसे छोड़कर परलोक में जाते हैं, तो वहाँ भी यह पाप का ही हेतु बनती है, क्योंकि पूर्व में छोड़ी हुई लक्ष्मी पुत्र के या अन्य के हाथ में चढ़ती है, वह पुरुष जिन-जिन पाप कर्मों का समाचरण करता है, उस पाप का विभाग लक्ष्मी संचय करानेवाला वह पुरुष जहाँ कहीं भी होता है, वहाँ उसे बिना इच्छा के भी लगता हैं। 'यह मेरा है' इस प्रकार का ममत्व होने पर जबरन किसी के द्वारा छोड़ा जाने पर अवश्य ही पाप का विभाग होता है। पुण्य का विभाग नहीं होता, जब तक कि उसकी अनुमति न दी जाये । पाप तो पूर्व में लिखे हुए ऋणपत्र के तुल्य है। लिखित ऋणपत्र का ऋण दिये बिना ब्याज उतरता नहीं है, बल्कि बढ़ता ही है । पुण्य तो नवीन व्यापार के योग्य वस्तु को ग्रहण करने में हाथ देकर सत्यंकार के तुल्य है। नवीन ग्रहण करने में तो जैसा बोला जाता है, वैसा ही प्राप्त किया जाता है। अनुमति के बिना पुण्य का विभाग प्राप्त नहीं होता है। अतः लक्ष्मी परभव में भी अनर्थदायिनी है। शास्त्र को पढ़कर उसके हार्द को दिल में बसा लेनेवाले पुरुषों के लिए तो काश की लकड़ी के समान लक्ष्मी मुक्ति-सुख को देनवाली है । कैसे? तो वह इस प्रकार है
जो विज्ञ पुरुष होता है, वह काशयष्टि को उसे उखाड़कर उसे सुधारकर अन्य-अन्य क्षेत्रों में बोता है, तो वह काश - यष्टि इक्षुदण्ड रूप हो जाती है। इसी प्रकार काशयष्टि रूप लक्ष्मी को जो जिनभवन - जिनबिम्ब आदि सात क्षेत्रों मे बोता है, उसके इक्षुयष्टि के समान स्वर्ग - मोक्षदायिनी वह लक्ष्मी परम्परा से होती है। अन्यथा तो अनर्थ का ही कारण होती है। इस प्रकार की भी लक्ष्मी यदि स्थिर होवे, तो उसका ममत्व युक्त है, पर वह तो समुद्र की लहरों की तरह चचंल है । लक्ष्मी के