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धन्य - चरित्र / 188 पुनः - पुनः वह धनी उसकी प्रशंसा करता हुआ, सिर को हिलाता हुआ, नेत्रों से टकटकी लगाकर देखता हुआ चित्रस्थ मूर्ति की तरह अचल होकर सुनने लगा । तभी जो चतुष्पथ पर गमनागमन करनेवाले लोग थे, वे भी उसकी वाणी सुनकर राग से आकृष्ट हृदयवाले हरिणों के समूह की तरह दौड़ते हुए वहाँ आ गये । चित्रमूर्ति की तरह स्थित होकर अनन्य चित्त से सुनने लगे। जो शास्त्र - विज्ञान मे कुशल पण्डित अपने—–अपने पाण्डित्य-दर्प से युक्त अत्यधिक कठिनाई से कण्ठीकृत किये हुए शास्त्र - परमार्थ से प्राप्त वक्तृत्व - कवित्व - शास्त्रपठन फल से मदोन्तत्त थे, वे भी वहाँ आकर उसकी वाणी सुनने में लीन बन गये । उसकी नये-नये उल्लेख से युक्त प्रतिभापटुता के द्वारा शब्दभेद-पद्यच्छेद - श्लेषार्थ - चित्रालंकार आदि से गर्भित सर्वतोमुखी वाणी की कुशलता को देखकर अपनी-अपनी निपुणता के अभिमान को छोड़ते हुए चमत्कृत होते हुए उस ब्राह्मण की वाणी की प्रशंसा करने लगे-“क्या यह ब्राह्मण किसी अन्य का रूपान्तरित स्वरूप है ? अथवा क्या यह सरस्वती का शिरोमणि है? अथवा क्या यह समस्त रसों की मूर्ति हैं? क्या यह वाणी को बजानेवाले ब्रह्मा की ध्वनि है? अथवा क्या शृंगारादि समस्त अमृत - रसों की नदी है ? अहो ! इसका चमत्कार-कारक कौशल्य ! अहो ! इसकी प्रतिभा की पटुता ! अहो ! इसके अन्वार्थ सहित विविध अर्थों को जोड़ने की शक्ति! अहो ! इसके शब्दानुप्रास की चतुरता ! अहो! इसकी एक ही पद्य में प्रतिपाद्य करने की रागान्तर अवतारण की शक्ति! अहो ! इसकी गम्भीर अर्थ के प्रति श्रोताओं के हृदय को आकर्षित करने की शक्ति! अहो इसका उपमा से अतीत जगत के चित्त को अनुरंजित करनेवाला रूप ! किसी अनिर्वचनीय शक्ति से रचित है इसका यह लीला - विलास ! मनुष्यों में तो इस प्रकार के सर्व-गुणों का एकमात्र स्थान मिलना दुर्लभ हैं। ऐसा न कभी देखा, न तो सुना । अहो! महान आश्चर्य है !"
जो नृत्य कलाओं में कुशल, रागादि विज्ञान के ज्ञाता थे, वे भी सुनकर मुक्त-कण्ठ से अपने स्वाभिमान को छोड़कर उसकी प्रशंसा करने लगे - " अहो ! इसके रागादि को विनिमय करने की शक्ति! अहो ! इसके राग में अवगाहन करने की शक्ति!”
इस प्रकार हजारों लोग अपने-अपने गृह - कार्यों को तथा खाने-पीने को भूलकर ऊँचे कान करके सुनने लगे, कोई भी बीच में एक शब्द भी नहीं बोलता था। जाते हुए समय का किसी को भी भान नहीं रहा । इस प्रकार करते हुए एक प्रहर से भी ऊपर का समय बीत गया। अब लक्ष्मी ने मन में विचार किया ।
इसने तो इतने - मात्र से अपने शक्ति - बल को दिखा दिया है। अब मैं वहाँ इसकी शक्ति का नाश करूँगी ।
इस प्रकार विचार करके एक बड़ी बुढ़िया का रूप धारण किया । वह कैसी थी??- जरा से जर्जरित शरीरवाली, मुख - नेत्र - घ्राण आदि विवरों से यथानुरूप रस