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धन्य-चरित्र/178 आदि चिह्न मिले । शुभ अन्तःकरणवाले द्वितीय पुत्र के कुम्भ के अन्दर घर-पुल आदि प्रकट करनेवाली पृथ्वी की रज दृष्टि-पथ पर आयी। तीसरे पुत्र के स्व-नामांकित कुम्भ के अन्दर हाथियों, ऊँटों, गधों घोड़ों तथा बैलों की अनेक अस्थियाँ रखी हुई थी। चौथे-सबसे छोटे पुत्र के कुम्भ में अपनी ज्योति से सर्व दिशाओं को द्योतित करनेवाले आठ करोड़ सुवर्ण को देखा। उन स्वर्ण से भरे हुए कलशों को देखकर तीनों अग्रजों के अमावस्या पक्ष की द्वादशी की रात्रि के पूर्व के तीनों प्रहर की भाँति अत्यधिक कालिमा से युक्त हो गये। चौथा पुत्र स्वर्ण से भरे हुए कलशों को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। स्वर्ण-मोहरों के लाभ से कौन प्रसन्न नहीं होता? छोटा होते हुए भी इसने लक्ष्मी के द्वारा महत्त्व को प्राप्त किया, जैसे छोटी-सी मणि भी कान्ति के द्वारा क्या अर्थ को नहीं प्राप्त करती?
उन तीनों भाइयों ने लोभ से क्षुभित होते हुए अशोभनीय भाषा में स्वर्णनिधान में अपना-अपना हिस्सा माँगा। तब छोटे भाई ने कहा-"अपने नाम का द्रव्य मैं नहीं दूंगा। मेरे भाग्य से लब्ध द्रव्य को मैं ही ग्रहण करूँगा। आपके पापोदय से यदि कुम्भों में धन नहीं निकला, तो मैं क्या करूँ? कौन जानता है कि आप तीनों में से किसी ने भी लोभ से चुरा लिया हो, तो मेरा क्या दोष है? आपके कर्मों का ही दोष है।"
__ इस प्रकार लज्जा-रहित होते हुए छोटे ने भी अपना भाग नहीं दिया। तब शिथिल स्नेहवाले वे सभी घरों में अपना क्लेश करने लगे। बहुत दिनों तक क्लेश से उद्विग्न होते हुए दम्भ रहित न्याय पाने के लिए चतुष्पथ में रहे हुए महा-इभ्य श्रेष्ठी जनों के पास गये, परंतु वे भी उनकी क्लेश-वार्ता को सुनकर दिशामूढ़ हो गये। अपने-अपने बुद्धि-वैभव का खर्च किया, पर निर्णय न कर पाये। तब सभी ने कहा-“राजद्वार में महाबुद्धि है। अतः राजा के दरबार में जाओ। वहाँ उनके पराघात नामकर्म के उदय के बल से सभी सीधे हो जायेंगे।"
यह सुनकर जैसे तार्किक न्याय को नहीं प्राप्त करने पर अत्यधिक विवाद करते हए सर्वज्ञ के पास जाते हैं, वैसे ही वे राजा के पास गये। राजसभा में जाकर अपना दुःख सुनाते हुए खड़े रह गये। वहाँ भी न्याय-निपुण चतुर मन्त्रियों द्वारा कलह शान्त न हो पाया, तब राजा ने विचार किया-"यह कलह किसी के द्वारा भी शान्त नहीं किया जा सकता, पर चारों बुद्धि में निपुण धन्य के द्वारा शान्त किया जा सकता है।"
इस प्रकार विचार करके धन्य को आदेश दिया। विपुल बुद्धि के धारक धन्य ने भी राजा की आज्ञा पाकर कहा-“हे भद्रों! आपके पिता ने भव्य, सरल तथा समान वर्गीकरण किया है, पर आप उसे नहीं जान पाने के कारण व्यर्थ ही कलह कर रहे हैं। चूँकि पिता का वात्सल्य सभी पुत्रों पर समान होता है, कुछ भी न्यूनाधिक नहीं होता। अतः आपके पिता ने द्रव्य का अंश सभी को समान ही दिया है। इसका रहस्य