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धन्य-चरित्र/171 इस प्रकार धन्य के कहे हुए कथन को सुनकर और उसके अद्भुत रूप को देखकर उसके चातुर्य से चमत्कृत होते हुए राजा ने उसे हरिणी को बुलाने के लिए कहा। धन्य ने भी उस प्रतिज्ञा को स्वीकारते हुए वीणा को लेकर अनेक गन्धर्यों के परिकर से युक्त होते हुए वन में गया। वहाँ एक वृक्ष की छाया में बैठकर मधुर स्वर में गीत गाने लगा और उसके साथ ही स्वर-ग्राम-मूर्च्छना आदि के संगमपूर्वक वीणा को बजाने लगा। तब उस वन में रही हुई हरिणियाँ लययुक्त गीत से आकृष्ट होकर विवश बनती हुई सभी दिशाओं से चलकर धन्य के पास आयीं और उसे घेरकर खड़ी हो गयीं। उन हरिणियों के मध्य में पूर्व में कन्या द्वारा पहनाये गये हारवाली हरिणी भी थी, जो गीत से वशीकृत चित्तवाली होकर हृदयेश के सामने प्रिया की तरह धन्य के सामने निःशंक होकर उसके मुख को देखती हुई खड़ी हो गयी। तब इन्द्रजाल-कला में कुशल लोगों की तरह मृगों के साथ गाते हुए ही नगर की ओर चलने लगा। अनेक लोगों के द्वारा कृत क्षोभों से क्षोभित करने पर भी गीत में लीन मृग-समूह ध्यानमग्न हृदयवाले योगी की तरह क्षुभित नहीं हुआ। सभी मृग आगे से पीछे तक धन्य के साथ लगकर उसके साथ ही चलने लगे।
इस प्रकार नगरजनों को आश्चर्यचकित करता हुआ धन्य नगर में प्रवेश करके दीर्घ चतुष्पथ से मृगों के साथ सारंगी बजाते हुए नागरिकों द्वारा देखा जाता हुआ राजसभा में गया। तब 'यह क्या है" इस प्रकार राजादि के कहने पर विशाल बुद्धि के स्वामी धन्य ने वीणा बजाते हुए ही हरिणी के कण्ठ से हार उतारकर कन्या के हाथ में समर्पित कर दिया।
इस प्रकार के अद्भुत दृश्य को देखकर आश्चर्य से भरे हुए राजादि तथा पौरजन प्रशंसा करने लगे-'अहो! इसका गीतकला-कौशल्य! अहो! इसका धैर्य! अहो! इसकी सौभाग्यता! अहो! इसने अदृष्टपूर्व मृग तथा मनुष्यों का निःशंक मिलन दिखा दिया। 'बहुरत्ना वसुन्धरा' -यह वाक्य इसने सार्थक कर दिया। कन्या भी पूर्ण भाग्यवती है, जिसकी ऐसी महान प्रतिज्ञा अपने मनोरथों के अनुरूप इसने पूरी की। भाग्य ने ही इन दोनों को बिल्कुल सही मिलाया है। जुग जुग जीओ। सुखी रहो।"
इस प्रकार राजा, अमात्य आदि प्रमुख जनों के द्वारा अभिनन्दित उस कन्या ने निःशंक होकर धन्य के गले में वरमाला डाल दी। पूर्ण प्रतिज्ञावाली वह कन्या राजा ने हर्षतिलक दानपूर्व धन्य को दे दी। शुभ दिन, शुभ लग्न में उन दोनों का पाणिग्रहण महोत्सव हुआ। करमोचन के समय राजा ने गज-रथ-तुरंग तथा सैकड़ों गाँव धन्य को दिये। तब जितारि राजा के आग्रह से सुचरित्रवाला धनसार-पुत्र धन्य मनों को वैचित्र्य की अनुभूति कराता हुआ कुछ दिनों के लिए राजा के द्वारा दिये गये आवास में रुक गया।
इसी नगर में सुबुद्धि नामक राजमन्त्री के सरस्वती नामक कन्या थी। वह सरस्वती के समान ही सभी विद्याओं के हार्द को जाननेवाली थी। उसकी प्रतिभा