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धन्य-चरित्र/150 प्रदान किये। सभी कर्मकरों को भी एक-एक वस्त्र प्रदान किया। वे भी हर्षित होते हुए वृद्ध की और ज्यादा प्रशंसा करने लगे।
इस प्रकार प्रतिदिन धनसार के मनोनुकूल ताम्बूल, वस्त्र, सुख से खाने योग्य वस्तुएँ आदि प्रदान कर धन्य उनका सत्कार करता था। कर्मकरों का भी यथायोग्य सत्कार करता था। अपने भाइयों का विशेष रूप से सत्कार करता था। लेकिन प्रबल पुण्य की श्रेष्ठता के प्रभाव से उसे कोई भी पारिवारिक सदस्य पहचान नहीं पाया।
एक बार धन्य ने स्थविर से कहा-'अब गर्मी आ गयी है। आपकी अवस्था तो जरा से जीर्ण है। दिन के अस्त होने पर चक्रवाक पक्षी की तरह छाछ के अभाव में आपको तो रतौंधी हो जायेगी।"
धनसार ने कहा-'स्वामी! यह हम भी जानते हैं। पर गाय आदि के अभाव में छाछ कहाँ से लायें? गाय आदि को पालने में मैं बहुत खर्च आता है। अतः निर्धनों का मनोरथ तो निरर्थक ही है।"
तब धन्य ने कहा-'ऐसे दीन वाक्य न कहें। मेरे घर में गाय आदि पशुओं का महान समूह है। दूध आदि भी प्रचुर होता है। अतः छाछ की भी कोई कमी नहीं है। अतः हे वृद्ध! आप प्रतिदिन हमारे घर से छाछ ग्रहण करें। बड़े लोगों द्वारा छाछ माँगने पर उसकी लघुता नहीं होती है-यह लोकोक्ति है। इसलिए तुम्हारी बहुएँ नित्य ही मेरे घर छाछ लेने के लिए आया करें। मेरे घर को अपने घर जैसा ही जानें। अन्तर न मानें।
तब होशियारी व चाटुकारिता से धनसार ने उठकर 'महान' प्रसाद कहा। संसार में चार स्थान धिक्कार के पात्र हैं। जो इस प्रकार हैं
दरिद्रता च मूर्खत्वं परायत्ता च जीविका।
क्षुधया क्षमकुक्षित्वं धिक्कारस्य हि भाजनम्।। दरिद्रता, मूर्खता, परतन्त्र जीविका तथा क्षुधा से क्षीण पेट – ये धिक्कार के पात्र हैं। और भी -
क्षीणो मृगयतेऽन्येषामौचित्यं सुमहानपि। द्वितीयाभूः प्रजादत्ततन्त्वन्वेषी यथा शशी।।1।। अर्थात् महान हैं, वे भी क्षीण होते हैं, तो अन्य के पास से औचित्य की स्पृहा करते हैं। जैसे-परम्परा से कलाओं को देनेवाले चन्द्र को खोजा जाता है।
तब धन्य भरण-पोषण आदि करने के लिए विशेष रूप से पिता आदि द्वारा किये जाने वलो सत्कार्य को भी दुर्भाग्य मानकर निन्दा करता हुआ अपने आवास में आ गया। तब धनसार को कर्मकरों ने कहा-'अहो!" आपके सान्निध्य से हम भी सुखी हो गये, क्योंकि सत्संग कल्याण के लिए ही होता है।
तब दूसरे दिन से धनसार की आज्ञा से पुत्रवधुएँ क्रम से जल के लिए समुद्र