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धन्य-चरित्र/155 शतपत्रों पर भ्रमरवृन्द ‘पुनः वसन्त मास में ये पल्लवित होंगे' इस आशय से रहते हुए काल बिताते हैं, वैसे ही मैं भी आशा के सहारे समय बिता रही हूँ।"
धन्य ने कहा-'हे मुग्धे! क्यों व्यर्थ ही यौवन का विनाश करती है? क्योंकि यौवन ही मनुष्य भव का सार है। उसे तुम व्यर्थ ही गँवा रही हो। बुद्धिमानों को हाथ में रहा हुआ ताम्बूल खा लेना चाहिए, उसे सुखाना नहीं चाहिए। अगर दूर देशान्तर को गये हुए के आगमन की आशा भी रखती हो, तो वह व्यर्थ है। अगर तुम उसकी प्रिया होती, तो तुम्हें कुछ संकेत आदि करके जाता। पर वह तो कंचुकी को त्यागे हुए सर्प की तरह घर से उद्विग्न होकर गया होगा। उसके पुनरागमन की आशा व्यर्थ है। अतः विकल्प जाल का त्याग करके मुझे स्वीकार कर लो। इस जगत के दुर्लभ भोगों का भोग किया जाये। गयी हुई आयुष्य पुनः लौटकर नहीं आती। अतः मुझे पति के रूप में स्वीकार करके इस दुर्दशा को प्रवासिनी बनाओ।"
वज्रपात सदृश वचनों को सुनकर भयभीत होती हुई सुभद्रा हाथों से कानों का ढ़कते हुए बोली-'हे दुर्बुद्धि! क्या तुमने कुलीन स्त्रियों की रीति कभी नहीं सुनी, जो कि इस प्रकार का प्रलाप करते हो? कहा भी है
गतियुगलकमेवोन्मत्तपुष्पोत्कराणां हरिशिरसि निवासः क्ष्मातले वा निपातः।
विमलकुलभवानामँगनानां शरीरं
पतिकरकरजो वा सेवते सप्तजिव्हः ।।1।। अर्थात् सुकुल में पैदा हुई नारी के शरीर की धतूरे के पुष्प की तरह दो ही प्रकार की गति है। जैसे-धतूरे का फूल या तो शिव के मस्तक पर चढ़ता है, या भूमि पर गिर जाता है। अन्य किसी उपयोग में नहीं आता। वैसे ही पतिव्रता नारियों का शरीर या तो पति के हाथ के स्पर्श के योग्य होता है या फिर अग्नि की ज्वाला के उपभोग के योग्य होता है। अन्य किसी के उपभोग के लिए नहीं होता।
इसलिए हे ग्रहग्रस्त! तुम नाम से तो धन्य कहे जाते हो, पर गुणों से तो अधन्य ही दिखायी देते हो, क्योंकि तुम बहुतों के नायक होकर भी इस प्रकार के विरुद्ध वाक्यों का प्रलाप करते हो। जैसे-नाम से मंगल होने पर भी वह ग्रह पृथ्वी पर वक्रगति के कारण अमंगलकारी ही होता है। अतः नाम पर मोहित नहीं होना चाहिए, गुणों द्वारा मोहित होना ही सार्थक है। हे ठक्कुर! तुम परस्त्री के संग की अभिलाषा से निश्चय ही इस वैभव और यश से भ्रष्ट होओगे, क्योंकि नाग की मणि को ग्रहण करने का इच्छुक क्या सुखी रह सकता है? मेरे शील का लोप करने में तो इन्द्र भी समर्थ नहीं है, तो तुम्हारी तो औकात ही क्या है? वड़वानल को बुझाने में समुद्र भी समर्थ नहीं है, तो फिर उत्मत्त नदी क्या कर सकती है? अतः कुविकल्प का त्याग करके सुशीलता का अनुसरण करो।"
इस प्रकार क्षय हुए कलिमलवाले साधु की चेतना की तरह उसकी अति