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धन्य-चरित्र/ 152 लेकर आओ।
उसने कहा-'मैं नहीं जाऊँगी। कल ही आपने हम तीनों को निर्भागी कहा था। अतः अपनी लाडली निपुण बहू को ही आदेश देवें। वह छाछ के लिए जाती है, तो दही-दूध आदि लाती है। अतः उसी को भेजिए। इस प्रकार दुःखपूर्वक बोलती हुई तीनों बहुएँ बैठी रहीं।"
तब वृद्ध ने कहा–'बेटी सुभद्रा! तुम ही जाओ। इनको तो सच्ची बात कहने पर भी ईर्ष्या होती है। तुम ही समता भाव धारण करके सुखपूर्वक जाकर छाछ ले आओ। अगर सभी एक सरीखे हो जायें, तो घर नहीं चलता।"
तब सुभद्रा वृद्ध के आदेश से छाछ लेने के लिए गयी। उसे आते हुए देखकर सौभाग्यमंजरी आगे आकर बोली-'सखी! आओ। तुम्हारा स्वागत है।" इत्यादि शिष्टाचारपूर्वक परस्पर कुशल वार्ता पूछकर पुनः दही-खाण्ड आदि देकर भेज दिया। सुभद्रा भी उसे लेकर अपने स्थान पर आ गयी। वृद्ध ने फिर उसकी प्रशंसा की। उसे सुनकर तीनों बहुएँ जल-भुनकर राख हो गयी।
उस दिन से रोज सुभद्रा ही छाछ के लिए जाती थी। दूसरी एक भी बहू नहीं जाती थी।
एक बार सौभाग्यमंजरी ने दावानल से झुलसी हुई आम्रलता के समान श्री-रहित सुभद्रा को छाछ के लिए आते हुए दूर से ही देखकर मन में विचार किया-'यह कर्मकर की पत्नी किसी उत्तम कुल की प्रतीत होती है, क्योंकि इसका रूप-लावण्य-लज्जा-विनय एवं वाणी-व्यवहार आदि इसकी कुलवत्ता और सुखवत्ता का सूचन करता है। कैसे भी पूर्वकृत अशुभ कर्मों के उदय से यह इस अवस्था को प्राप्त हुई है, यह हमेशा से दुःखी अवस्थावाली नहीं है। अतः पहले इसकी प्रीति प्राप्त कर लूँ। फिर पूछने की कोशिश करूँगी।"
इस प्रकार विचार करके आगे आकर आदरपूर्वक बातचीत की, विश्राम के लिए अच्छी-सी मंचिका पर बिठाया, स्वयं भी समीप में बैठकर सुख-क्षेम वार्ता करते हुए पूछा-'सखी! तुम्हारी व मेरी मैत्री हो गयी है। मित्रता होने पर परस्पर कोई भेद नहीं रहता। कहा भी है
ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति। भुक्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्।।1।।
अर्थात् देना, ग्रहण करना, गूढ़ बातों का आदान, प्रदान, खाना और खिलाना–ये छह प्रीति के लक्षण हैं।
अतः अगर तुम मुझ पर प्रीति के विमल आशय को धारण करती हो, तो शुरू से अपनी कहानी साफ-साफ एवं सत्य-सत्य बताओ। क्या स्फटिक की दीवार से अपने अन्दर की वस्तु छिपायी जा सकती है?"
तब सुमुखी सुभद्रा लज्जा से अधोमुखी होती हुई बोली-“सखी! मुझसे क्या