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धन्य-चरित्र/144 आदि लोग उसके श्वसुर कुल की निन्दा करते हैं। जैसे-हमारे ननदोई तो बिना विचारे कार्य करते हैं। बिना कारण ही, बिना पूछे ही सहसा कुलवती स्त्री को विडम्बना पथ पर छोड़कर कहीं चले गये। घर का निर्वाह यदि क्षमाशील हो, तो ही घर का निर्वाह होता है।
तब दूसरा कोई बोलेगा-ननदोई का कोई दोष नहीं है। दिन-रात मजदूरी की तरह कुटुम्ब की सेवा में व्याकुल रहते थे। परन्तु इसके ज्येष्ठ भ्राता यवासक वृक्ष की भाँति कुटिल स्वभाववाले होने से इसकी उन्नति को सहन नहीं कर सकते थे। अतः उनके दुर्वचनों से खेदित 'देश त्याग से दुर्जन का त्याग करना चाहिए" इस नीति का स्मरण करके और सज्जनता-युक्त स्वभाव होने से घर को छोड़कर चले गये। कहावत भी है
अपमाने न तिष्ठन्ति सिंहाः सत्पुरुषा गजाः। अर्थात् सिंह, गज तथा सत्पुरुष अपमान के स्थान पर नहीं रहते।
फिर कोई कहेगा-यह पुरुष का चरित नहीं है। बहुत जनों से खेदित होने पर क्या तेजस्वी पुरुष भाग जाता है? जूं के भय से क्या पहने हुए वस्त्रों का त्याग किया जाता है? बल्कि दुर्जनों को तो यथायोग्य शिक्षा दी जाती है, जिससे पुनः उसकी वार्ता में नाम भी ग्रहण न हो। शिक्षा शास्त्र में भी कहा है
शठं प्रति शाठ्यं कुर्याद्, मृदुकं प्रति मार्दवम्।
त्वया मे लुञ्चितौ पक्षौ, मया मुण्डापितं शिरः ।। शिक्षा शास्त्र में शुक व पण्याँगना का दृष्टान्त आता है, जिसमें जब पण्याँगना धोखे से शुक के पंख नोंच लेती है, तब शुक उसका सिर अपनी युक्तियों से मुण्डित करवा देता है और कहता है, कि तुमने मेरे पंख नोंचे और मैंने तुम्हारा सिर मुंडित करवा दिया।
इत्यादि शास्त्रों के रहस्य को जानते हुए भी, राजादि के भय से रहित भी, समस्त पुर में आदेय वचनवाला होने पर भी, दृढ़ बद्ध मूल होने पर भी अगर भाग गया, तो अच्छा नहीं किया। यह धैर्यशाली पुरुषों का चरित नहीं है।"
इस प्रकार के सुभद्रा के वचनों को सुनकर प्रसन्न होते हुए श्रेष्ठी ने कहा-“हे पतिव्रता! तुमने बहुत अच्छा कहा। इसी कारण से तुम उस पुरुषोत्तम धन्य की सत्य-पत्नी हो। तुम्हारे इस पातिव्रत्य धर्म के कारण सब अच्छा ही होगा।'
तब धनसार अपनी पत्नी, पुत्रवधू सुभद्रा तथा पत्नियों सहित तीनों पुत्रों को लेकर आठ कर्म से युक्त जीव की तरह राजगृह नगरी से निकल गया। जहाँ-तहाँ कर्मकार-वृत्ति से आजीविका करते हुए बहुत से देशों व नगरों में घूमते हुए क्रमशः कौशाम्बी नगरी में आये, क्योंकि
यतयो याचका निःस्वाश्च वायुरिव न स्थिरा भवेयुः। अर्थात् मुनि, याचक और निर्धन लोग एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते।